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गोम्मटसार।
लब्ध्यपूर्ण मिथ्यात्वे तत्रापि द्वितीये चतुर्थषष्ठे च ।
निर्वृत्त्यपर्याप्तिः तत्रापि शेषेषु पर्याप्तिः ॥ १२६ ॥ अर्थ-लब्ध्यपर्याप्तक मिथ्यात्व गुणस्थानमें ही होते हैं । निर्वृत्यपर्याप्तक प्रथम द्वितीय चतुर्थ और छट्टे गुणस्थानमें होते हैं । और पर्याप्ति उक्त चारो और शेष सभी गुणस्थानोंमें पाई जाती है। भावार्थ-प्रथम गुणस्थानमें लब्ध्यपर्याप्ति निवृत्यपर्याप्ति पर्याप्ति तीनों अवस्था होती हैं । सासादन असंयत और प्रमत्तमें निर्वृत्यपर्याप्त पर्याप्त ये दो अवस्था होती हैं। उक्त तथा शेष सब ही गुणस्थानों में पर्याप्ति पाई जाती है । प्रमत्त गुणस्थानमें जो निर्वृत्यपर्याप्त अवस्था कही है, वह आहारक मिश्रयोगकी अपेक्षासे है । इस गाथामें जो च शब्द पड़ा है उससे सयोगकेवली भी निर्वृत्यपर्याप्तक होते हैं यह वात गौणतया सूचित की है। सासादन और सम्यक्त्वके अभावका नियम कहां २ पर है यह बताते हैं।
हेहिमछप्पुढवीणं जोइसिवणभवणसघइत्थीणं ।
पुण्णिदरे णहि सम्मो ण सासणो णारयापुण्णे ॥ १२७ ॥ .. अधःस्तनषटूपृथ्वीनां ज्योतिप्कवनभवनसर्वस्त्रीणाम् ।
पूर्णेतरस्मिन् न हि सम्यक्त्वं न सासनो नारकापूर्णे ॥ १२७ ॥ अर्थ-द्वितीयादिक छह नरक और ज्योतिषी व्यन्तर भवनवासी ये तीन प्रकारके देव, तथा सम्पूर्ण स्त्रियां इनकी अपर्याप्त अवस्थामें सम्यक्त्व नहीं होता । और सासादन सम्यग्दृष्टी अपर्याप्त नारकी नहीं होता । भावार्थ-सम्यक्त्वसहित जीव मरण करके द्वितीयादिक छह नरक ज्योतिषी व्यन्तर भवनवासी देवों में और समग्र. स्त्रियोंमें उत्पन्न नहीं होता। और सासादनसम्यग्दृष्टि मरण कर नरकको नहीं जाता।
इति पर्याप्तिप्ररूपणो नाम तृतीयोऽधिकारः।
अब प्राणप्ररूपणा क्रमप्राप्त है उसमें प्रथम प्राणका निरुक्तिपूर्वक लक्षण कहते हैं।
बाहिरपाणेहिं जहा तहेव अभंतरेहिं पाणेहिं । पाणंति जेहिं जीवा पाणा ते होंति णिहिट्ठा ॥ १२८ ॥ बाह्यमाणैर्यथा तथैवाभ्यन्तरैः प्राणैः ।
प्राणन्ति यैर्जीवाः प्राणास्ते भवन्ति निर्दिष्टाः ॥ १२८ ।। अर्थ-जिस प्रकार अभ्यन्तरप्राणों के कार्यभूत नेत्रोंका खोलना, वचनप्रवृत्ति, उच्छास निःश्वास आदि बाह्य प्राणोंके द्वारा जीव जीते हैं, उसही प्रकार जिन अभ्यन्तर इन्द्रियावरणकर्मके क्षयोपशमादिके द्वारा जीवमें जीवितपनेका व्यवहार हो उनको प्राण कहते हैं। भावार्थ-जिनके सद्भावमें जीवमें जीवितपनेका और वियोग होनेपर मरणपनेका व्यवहार
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