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रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् । सर्वेपि पूर्वभङ्गा उपरिमभङ्गेषु एकैकेषु ।
मिलन्ति इति च क्रमशो गुणिते उत्पद्यते संख्या ॥ ३६॥ अर्थ-पूर्वके सब ही भङ्ग आगेके प्रत्येक भङ्गमें मिलते हैं, इसलिये क्रमसे गुणाकार करने पर संख्या उत्पन्न होती है । भावार्थ-पूर्वके विकथाओंके प्रमाण चारको आगेकी कषायोंके प्रमाण चारसे गुणा करना चाहिये, क्योंकि प्रत्येक विकथा प्रत्येक कषायके साथ पाई जाती है । इससे जो राशि उत्पन्न हो (जैसे १६) उसको पूर्व समझकर उसके आगेकी इन्द्रियों के प्रमाण पांचसे गुणा करना चाहिये, क्योंकि प्रत्येक विकथा या कषाय प्रत्येक इन्द्रियके साथ पाई जाती है । इसके अनुसार सोलहको पांचसे गुणने पर अस्सी प्रमादोंकी संख्या निकलती है । निद्रा और प्रणय ये एक ही एक हैं इसलिये इन के साथ गुणा करनेपर संख्यामें वृद्धि नहीं हो सक्ती । अब प्रस्तारक्रमको दिखाते हैं ।
पढमं पमदपमाणं कमेण णिक्खिविय उवरिमाणं च । पिंडं पडि एकेकं णिक्खित्ते होदि पत्थारो ॥ ३७॥
प्रथमं प्रमादप्रमाणं क्रमेण निक्षिप्य उपरिमाणं च ।
पिण्डं प्रति एकैकं निक्षिप्ते भवति प्रस्तारः ॥ ३७ ॥ अर्थ-प्रथम प्रमादके प्रमाणका विरलन कर क्रमसे निक्षेपण करके उसके एक एक रूपके प्रति आगेके पिण्डरूप प्रमादके प्रमाणका निक्षेपण करनेपर प्रस्तार होता है । भावार्थप्रथम विकथा प्रमादका प्रमाण ४, उसका विरलन कर क्रमसे ११११ इसतरह निक्षेपण करना । इसके ऊपर कषायप्रमादके प्रमाण चारको प्रत्येक एकके ऊपर १९९९ इसतरह निक्षेपण करना, ऐसा करनेके अनंतर परस्पर ( कषायको ) जोड़ देने पर १६ सोलह होते हैं । इन सोलहका भी पूर्वकी तरह विरलन कर एक २ करके सोलह जगह रखना तथा प्रत्येक एकके ऊपर आगेके इन्द्रियप्रमादका प्रमाण पांच २ रखना। ऐसा करनेसे पूर्वकी तरह परस्पर जोड़ने पर अस्सी प्रमाद होते हैं । इसको प्रस्तार कहते हैं । इससे यह मालूम हो जाता है कि पूर्वके समस्त प्रमाद, आगेके प्रमाद के प्रत्येकभेदके साथ पाये जाते हैं। प्रस्तारका दूसरा क्रम बताते हैं ।
णिक्खित्तु बिदियमेत्तं पढमं तस्सुवरि विदियमेकेकं । पिंडं पडि णिक्खेओ एवं सवत्थ कायद्यो॥३८॥
निक्षिप्त्वा द्वितीयमानं प्रथमं तस्योपरि द्वितीयमेकैकम् । पिण्डं प्रति निक्षेप एवं सर्वत्र कर्तव्यः ॥ ३८ ॥
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