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गोम्मटसार।
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अनुभाग अपूर्वस्पर्घकसेभी क्षीण हो जाय उनको बादरकृष्टि, और जिनका अनुभाग बादरकृष्टिकी अपेक्षाभी क्षीण हो जाय उनको सूक्ष्मकृष्टि कहते हैं । पूर्वस्पर्धकके जघन्य अनुभागसे अपूर्वस्पर्धकका उत्कृष्ट अनुभाग भी अनन्तगुणा हीन है। इसीप्रकार अपूर्वस्पर्धकके जघन्यसे बादरकृष्टिका उत्कृष्ट और बादरकृष्टिके जघन्यसे सूक्ष्मकृष्टिका उत्कृष्ट अनुभाग अनन्तगुणा २ हीन है । और जिस प्रकार पूर्वस्पर्धकके उत्कृष्टसे पूर्वस्पर्धकका जघन्य अनन्तगुणाहीन है उसही प्रकार अपूर्वस्पर्धक आदिमें भी अपने २ उत्कृष्टसे अपना २ जघन्य अनुभाग अनन्तगुणा २ हीन है । दशमें गुणस्थानका स्वरूप कहते हैं ।
धुदकोसुंभयवत्थं होदि जहा सुहमरायसंजुत्तं । एवं सुहमकसाओ सुहमसरागोत्ति णादवो ॥ ५९॥ धौतकौसुम्भवस्त्रं भवति यथा सूक्ष्मरागसंयुक्तम् ।।
एवं सूक्ष्मकषायः सूक्ष्मसराग इति ज्ञातव्यः ॥ ५९ ॥ अर्थ-जिस प्रकार धुले हुए कसूमी वस्त्रमें लालिमा ( सुर्सी ) सूक्ष्म रहजाती है, उसही प्रकार जो अत्यन्तसूक्ष्म राग (लोभ ) से युक्त है उसको सूक्ष्मसाम्पराय नामक दशम गुणस्थानवर्ती कहते हैं। भावार्थ:-जहांपर पूर्वोक्त तीन करणके परिणामोंसे क्रमसे लोभकषायके विना चारित्रमोहनीयकी शेष वीस प्रकृतियोंका उपशम अथवा क्षय होनेपर सूक्ष्मकृष्टिको प्राप्त लोभकषायका उदय पाया जाय उसको सूक्ष्मसाम्पराय नामका दशमां गुणस्थान कहते हैं। इस सूक्ष्मलोभके उदयसे होनेवाले फलको दिखाते हैं।
अणुलोहं वेदंतो जीवो उबसामगो व खबगो वा। . सो सुहमसंपराओ जहखादेणूणओ किंचि ॥ ६०॥ अणुलोभं विदन् जीव उपशमको व क्षपको वा।
स सूक्ष्मसाम्परायो यथाख्यतेनोनः किश्चित् ॥ ६० ॥ अर्थ-चाहे उपशमश्रेणिका आरोहण करनेवाला हो अथवा क्षपकश्रेणिका आरोहण करनेवालाहो; परन्तु जो जीव सूक्ष्मलोभके उदयका अनुभव कर रहा है ऐसा दशमे गुण. स्थानवी जीव यथाख्यात चारित्रसे कुछही न्यून रहता है । भावार्थ-यहांपर सूक्ष्म लोभका उदय रहनेसे यथाख्यात चारित्रके प्रकट होनेमें कुछ कमी रहती है। ग्यारहमे गुणस्थानका स्वरूप दिखाते हैं।
कदकफलजुदजलं वा सरए सरवाणियं व शिम्मलयं । सयलोवसंतमोहो उबसंतकसायओ होदि ॥ ६१ ॥
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