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रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् । अर्थ-पांच स्थावरोंके बादर सूक्ष्मकी अपेक्षा पांच युगल होते हैं । इनमें त्रस सामान्यका एक भेद मिलानेसे ग्यारह भेद जीवसमासके होते हैं । तथा इनही पांच युगलोंमें त्रसके विकलेन्द्रिय सकलेन्द्रिय दो भेद मिलानेसे बारह । और त्रसके विकलेन्द्रिय संज्ञी असंज्ञी इसप्रकार तीन भेद मिलानेसे तेरह । और द्वीन्द्रिय त्रीन्द्रिय चतुरिन्द्रिय पंचेन्द्रिय ये चार भेद मिलानेसे चौदह । तथा द्वीन्द्रिय त्रीन्द्रिय चतुरिन्द्रिय असंज्ञी संज्ञी ये पांच भेद मिलानेसे पन्द्रह भेद जीवसमासके होते हैं । पृथिवी अप तेज वायु नित्यनिगोद इतर निगोद इनके बादर सूक्ष्मकी अपेक्षा छह युगल और प्रत्येक वनस्पति इनमें त्रसके उक्त विकलेन्द्रिय असंज्ञी संज्ञी ये तीन भेद मिलानेसे सोलह, और द्वीन्द्रियादि चार भेद मिलानेसे सत्रह, तथा पांच भेद मिलानेसे अठारह भेद होते हैं।
सगजुगलम्हि तसस्स य पणभंगजुदेसु होंति उणवीसा। एयादुणवीसोत्ति य इगिबितिगुणिदे हवे ठाणा ॥ ७ ॥
सप्तयुगले त्रसस्य च पंचभंगयुतेषु भवन्ति एकोनविंशतिः।
एकादेकोनविंशतिरिति च एकद्वित्रिगुणिते भवेयुः स्थानानि ॥ ७७ ॥ अर्थ-पृथिवी अप तेज वायु नित्यनिगोद इतरनिगोदके बादर सूक्ष्मकी अपेक्षा छह युगल और प्रत्येकका प्रतिष्ठित अप्रतिष्ठितकी अपेक्षा एक युगल मिलाकर सात युगलोंमें त्रसके उक्त पांच भेद मिलानेसे जीवसमासके उन्नीस भेद होते हैं । इस प्रकार एकसे लेकर उन्नीस तक जो जीवसमासके भेद गिनाये हैं, इनको एक दो तीनके साथ गुणा करनेपर क्रमसे उन्नीस, अड़तीस, सत्तावन, जीवसमासके अवान्तर भेद होते हैं । एक दो तीनके साथ गुणाकरनेका कारण बताते हैं ।
सामण्णण तिपंती पढमा विदिया अपुण्णगे इदरे । पजत्ते लद्धिअपजत्तेऽपढमा हवे पंती ॥७८॥
सामान्येन त्रिपतयः प्रथमा द्वितीया अपूर्णके इतरस्मिन् ।
पर्याप्ते लब्ध्यपर्याप्तेऽप्रथमा भवेत् पतिः ॥ ७८ ॥ अर्थ-उक्त उन्नीस भेदोंकी तीन पति करनी चाहिये । उसमें प्रथम पति सामान्यकी अपेक्षासे है । और दूसरी पति अपर्याप्त तथा पर्याप्तकी अपेक्षासे है । और तीसरी पनि पर्याप्त निर्वृत्यपर्याप्त लब्ध्यपर्याप्तकी अपेक्षासे है । भावार्थ-उन्नीसका जब एकसे गुणा करते हैं तब सामान्यकी अपेक्षा है, पर्याप्त अपर्याप्तके भेदकी विवक्षा नहीं हैं । जब दोके साथ गुणा करते हैं तब पर्याप्त अपर्याप्तकी अपेक्षा है। और जब तीनके साथ गुणा करते हैं तब पर्याप्त निवृत्यपर्याप्त लब्ध्यपर्याप्तकी अपेक्षा है । गाथामें केवल लब्धि शब्द है उसका अर्थ लब्ध्यपर्याप्त होता है; क्योंकि नामका एक देशभी पूर्णनामका बोधक होता है।
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