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गोम्मटसार।
४७ भी तैजस्कायिकसे लेकर पर्याप्त पञ्चेन्द्रियकी उत्कृष्ट अवगाहना पर्यन्त सम्पूर्ण जीवसमासोंके प्रत्येक अन्तरालमें प्रदेशवृद्धिक्रमसे अवगाहनास्थानोंको समझना चाहिये। __ उक्त सम्पूर्ण अवगाहनाके स्थानों में किसमें किसका अन्तर्भाव होता है इसको मत्स्यरचनाके द्वारा सूचित करते हैं।
हेट्ठा जेसिं जहण्णं उबरि उकस्सयं हवे जत्थ । तत्थंतरगा सबे तेसिं उग्गाहणविअप्पा ॥ ११२ ॥
अधस्तनं येषां जघन्यमुपयुत्कृष्टकं भवेद्यत्र ।
तत्रान्तरगाः सर्वे तेषामवगाहनविकल्पाः ॥ ११२ ॥ अर्थ-जिन जीवोंकी प्रथम जघन्य अवगाहनाका और अनन्तर उत्कृष्ट अवगाहनाका जहां २ पर वर्णन किया गया है उनके मध्यमें जितने भेद हैं उन सबका मध्यके भेदोंमें अन्तर्भाव होता है । भावार्थ-जिनके अवगाहनाके विकल्प अल्प हैं उनका प्रथम विन्यास करना, और जिनकी अवगाहनाके विकल्प अधिक हैं उनका विन्यास पीछे करना । जिसके जहाँसे जहांतक अवगाहना स्थान हैं उनका वहांसे वहांतक ही विन्यास करना चाहिये । ऐसा करनेसे मत्स्यका आकार होजाता है । इस मत्स्यरचनासे किस जीवके कितने अवगाहनाके स्थान हैं और कहांसे कहांतक हैं यह प्रतीत होजाता है । . इसप्रकार स्थान योनि तथा शरीरकी अवगाहनाके निमित्तसे जीवसमासका वर्णन करके कुलोंके द्वारा जीवसमासका वर्णन करते हैं।
बावीस सत्त तिण्णि य सत्त य कुलकोडिसयसहस्साई । णेया पुढविदगागणि वाउक्कायाण परिसंखा ॥ ११३॥ द्वाविंशतिः सप्त त्रीणि च सप्त च कुलकोटिशतसहस्राणि ।
ज्ञेया पृथिवीदकाग्निवायुकायकानां परिसंख्या ॥ ११३ ॥ अर्थ-पृथिवीकायके बाईस लाख कुलकोटि हैं, । जलकायके सात लाख कुलकोटि हैं। अमिकायके तीन लाख कुलकोटि हैं । और वायुकायके सात लाख कुलकोटि हैं । भावार्थशरीरके भेदको कारणभूत नोकर्मवर्गणाके भेदको कुल कहते हैं । ये कुल क्रमसे पृथिवी. कायके वाईस लाख कोटि, जलकायके सात लाख कोटि, अमिकायके तीन लाख कोटि, और वायुकायके सात लाख कोटि समझने चाहिये।
अद्धत्तेर सवारस दसयं कुलकोडिसदसहस्साई । जलचरपक्खिचउप्पय उरपरिसप्पेसु णव होंति ॥ ११४ ॥
अर्द्धत्रयोदश द्वादश दशकं कुलकोटिशतसहस्राणि । जलचरपक्षिचतुष्पदोरुपरिसर्वेषु नव भवन्ति ॥ ११४ ॥
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