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रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् । उसको जघन्य अवगाहनामें मिलानेसे असंख्यातभागवृद्धिका आदिस्थान होता है । और जघन्य परीतासंख्यात अर्थात् १६ का भाग देनेसे ६० लब्ध आते हैं उनको जघन्य अवगाहनामें मिलानेसे असंख्यातभागवृद्धिका उत्कृष्ट स्थान होता है । उत्कृष्ट संख्यातका अर्थात् १५ का जघन्य अवगाहनामें भाग देनेसे लब्ध ६४ आते हैं इनको जघन्य अवगाहनामें मिलानेसे संख्यातभागवृद्धिका आदिस्थान होता है । जघन्यमें २ का भागदेनेसे जो लब्ध आवे उसको अर्थात् जघन्यके आधेको जघन्यमें मिलानेसे संख्यातभागवृद्धिका उत्कृष्ट स्थान होता है। परन्तु उत्कृष्ट असंख्यातभागवृद्धिके आगे और जघन्य संख्यातभागवृद्धिके पूर्व जो तीन स्थान है, अर्थात् जघन्यके ऊपर ६० प्रदेशोंकी वृद्धि तथा ६४ प्रदेशोंकी वृद्धिके मध्यमें जो ६१-६२ तथा ६३ प्रदेशों की वृद्धिके तीन स्थान हैं, वे न तो असंख्यातभागवृद्धि में ही आते हैं और न संख्यातभागवृद्धिमें ही, इसलिये इनको अवक्तव्यवृद्धि में लिया है । इसके आगे गुणवृद्धिका प्रारम्भ होता है, जघन्यको दूना करनेसे संख्यातगुणवृद्धिका आदिस्थान ( १९२०) होता है । इसके पूर्वमें उत्कृष्ट संख्यातभागवृ द्धिके स्थानसे आगे अर्थात् १४४० से आगे जो १४४१ तथा १४४२ आदि १९१९ पर्यंत स्थान हैं वे सम्पूर्ण ही अवक्तव्यवृद्धिके स्थान हैं । इसही प्रकार जघन्यको उत्कृष्ट संख्यातसे गुणित करनेपर संख्यातगुणवृद्धिका उत्कृष्ट स्थान होता है। और इसके आगे जघन्यपरीतासंख्यातका जघन्य अवगाहनाके साथ गुणा करनेपर असंख्यातगुणवृद्धिका आदिस्थान होता है। तथा इन दोनोंके मध्यमें भी पूर्वकी तरह अवक्तव्य वृद्धि होती है । इस असंख्यातगुणवृद्धिमें ही प्रदेशोत्तरवृद्धिके क्रमसे वृद्धि होते २ सूक्ष्म वातकायकी जघन्य अवगाहनाकी उत्पत्तिके योग्य गुणाकार प्राप्त होता है उसका जघन्य अवगाहनाके साथ गुणा करनेपर सूक्ष्म वातकायकी जघन्य अवगाहना उत्पन्न होती है । इस अंकसंदृष्टिके अनुसार अर्थ संदृष्टि भी समझना चाहिये; परन्तु अंकसंदृष्टिको ही अर्थसंदृष्टि नहीं समझना चाहिये।
इसप्रकार सूक्ष्म निगोदियाके जघन्य अवगाहनास्थानोंसे सूक्ष्म वातकायकी जघन्य अवगाहनापर्यन्त स्थानोंको बताकर तैजस्कायादिके अवगाहनास्थानोंके गुणाकारकी उत्पत्तिके क्रमको वताते हैं।
एवं उवरि विणेओ पदेसवदिक्कमो जहाजोगं । सबत्थेक्केकलि य जीवसमासाण विचाले ॥ १११ ॥ एवमुपर्यपि ज्ञेयः प्रदेशवृद्धिक्रमो यथायोग्यम् ।
सर्वत्रैकैकस्मिंश्च जीवसमासानामन्तराले ॥ १११ ॥ अर्थ-जिसप्रकार सूक्ष्म निगोदिया अपर्यातसे लेकर सूक्ष्म अपर्याप्त वातकायकी जघन्य अवगाहना पर्यन्त प्रदेश वृद्धिके क्रमसे अवगाहनाके स्थान वताये, उसही प्रकार आगे
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