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रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् । अर्थ-पूर्वोक्त क्रमानुसार सामान्यसे योनियों के नियमसे नव ही भेद होते हैं । विस्तारकी अपेक्षा इनके चौरासी लाख भेद होते हैं । योनिसम्बन्धी विस्तृत संख्याको दिखाते हैं ।
णिचिदरधादुसत्त य तरुदस वियलिंदियेसु छच्चेव । सुरणिरयतिरियचउरो चोद्दस मणुए सदसहस्सा॥ ८९॥ नित्येतरधातुसप्त च तरुदश विकलेन्द्रियेषु षट् चैव ।
सुरनिरयतिर्यक्चतस्रः चतुर्दश मनुष्ये शतसहस्राः ॥ ८९ ॥ - अर्थ--नित्यनिगोद इतरनिगोद पृथिवी जल अग्नि वायु इन प्रत्येककी सात २ लाख, वनस्पतिकी दशलाख, द्वीन्द्रिय त्रीन्द्रिय चतुरिन्द्रिय इन प्रत्येककी दो २ लाख अर्थात् विकलेन्द्रियकी छह लाख, देव नारकी तिर्यञ्च इन प्रत्येककी चार २ लाख, मनुष्यकी चौदह लाख, सब मिलाकर ८४ लाख योनि होती हैं। किस गतिमें कौनसा जन्म होता है यह दो गाथाओंद्वारा दिखाते हैं।
उबबादा सुरणिरया गब्भजसम्मुच्छिमा हु णरतिरिया । सम्मुच्छिमा मणुस्साऽपजत्ता एयवियलक्खा ॥९॥ उपपादाः सुरनिरया गर्भजसम्मूर्च्छिमा हि नरतिर्यञ्चः
सम्मूच्छिमा मनुष्या अपर्याप्ता एकविकलाक्षाः ॥ ९०॥ अर्थ-देवगति और नरकगतिमें उपपाद जन्मही होता है । मनुष्य तथा तिर्यञ्चोंमें गर्भ और सम्मूर्छन दो ही प्रकारका जन्म होता है; किन्तु लब्ध्यपर्याप्तक मनुष्य और एकेन्द्रिय विकलेन्द्रियोंका सम्मूर्छन जन्म ही होता है ।
पंचक्खतिरिक्खाओ गन्भजसम्मुच्छिमा तिरिक्खाणं। भोगभुमा गब्भभवा नरपुण्णा गब्भजाचेव ॥ ९१ ॥ पञ्चाक्षतिर्यञ्चो गर्भजसम्मूर्छिमा तिरश्वाम् ।
भोगभूमा गर्भभवा नरपूर्णा गर्भजाश्चैव ॥ ९१ ॥ अर्थ-कर्मभूमिया पंचेन्द्रिय तिर्यश्च गर्भज तथा सम्मूर्छन ही होते हैं । तिर्यञ्चोंमें जो भोगभूमिया तिर्यञ्च हैं वे गर्भज ही होते हैं । और जो पर्याप्त मनुष्य हैं वे भी गर्भज ही होते हैं। लब्ध्यपर्याप्तकोंकी कहां २ सम्भावना है और नहीं है यह बताते हैं ।
उबबादगब्भजेसु य लद्धिअपजत्तगा ण णियमेण । णरसम्मुच्छिमजीवा लद्धिअपजत्तगा चेव ॥ ९२ ॥
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