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रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम्। कतकफलयुतजलं वा शरदि सरःपानीयं व निर्मलम् ।
सकलोपशान्तमोह उपशान्तकषायको भवति ॥ ६१ ॥ अर्थ-निर्मली फलसे युक्त जलकी तरह, अथवा शरदऋतुमें होनेवाले सरोवरके जलकी तरह, सम्पूर्ण मोहनीयकर्मके उपशमसे उत्पन्न होनेवाले निर्मल परिणामोंको उपशा. न्तकषाय ग्याहरमां गुणस्थान कहते हैं। बारहमें गुणस्थानको कहते हैं।
हिस्सेसखीणमोहो फलिहामलभायणुदयसमचित्तो। खीणकसाओ भण्णदि णिग्गंथो वीयरायहि ॥ ६२॥ निःशेषशीणमोहः स्फटिकामलभाजनोदकसमचित्तः ।
क्षीणकषायो भण्यते निर्ग्रन्थो वीतरागैः ॥ ६२ ॥ अर्थ-जिस निर्ग्रन्थका चित्त मोहनीय कर्मके सर्वथा क्षीण होनेसे स्फटिकके निर्मल पात्रमें रक्खे हुए जलके समान निर्मल होगया है उसको वीतरागदेवने क्षीणकषायनामक बारहमे गुणस्थानवर्ती कहा है । दो गाथाओंद्वारा तेरहवें गुणस्थानको कहते हैं ।
केवलणाणदिवायरकिरणकलाबप्पणासियण्णाणो । णवकेवललडुग्गमसुजणियपरमप्पववएसो ॥६३॥ केवलज्ञान दिवाकरकिरणकलापप्रणाशिताज्ञानः ।।
नवकेवललब्ध्युद्गमसुजनितपरमात्मव्यपदेशः ॥ ६३ ॥ अर्थ-जिसका केवलज्ञानरूपी सूर्यकी अविभागप्रतिच्छेदरूप किरणोंके समूहसे ( उत्कृष्ट अनन्तानन्तप्रमाण) अज्ञान अन्धकार सर्वथा नष्ट होगया हो, और जिसको नव केवललब्धियोंके ( क्षायिक-सम्यक्त्व चारित्र ज्ञान दर्शन दान लाभ भोग उपभोग वीर्य) प्रकट होनेसे “परमात्मा" यह व्यपदेश (संज्ञा ) प्राप्त होगया है, वहः
असहायणाणदंसणसहिओ इदि केवली हु जोगेणजुत्तोत्ति सजोगिजिणो अणाइणिहणारिसे उत्तो ॥ ६४ ॥ असहायज्ञानदर्शनसहित इति केवली हि योगेन
युक्त इति सयोगिजिनः अनादिनिधनार्षे उक्तः॥ ६४ ॥ अर्थ-इन्द्रिय आलोक आदिकी अपेक्षा न रखनेवाले ज्ञान दर्शनसे युक्त होनेके कारण केवली, और काययोगसे युक्त रहनेके कारण सयोगी, तथा घातिकर्मोंसे रहित होनेके कारण जिन कहा जाता है, ऐसा अनादिनिधन आर्ष आगममें कहा है। भावार्थ-बारहमे गुणस्था.
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