________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir
रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् ।
अर्थ-प्रथमाक्ष जो विकथारूप प्रमादस्थान वह घूमता हुआ जब क्रमसे अंततक पहुंचकर फिर स्त्रीकथारूप आदि स्थानपर आता है तब दूसरा कषायका स्थान क्रोधको छोड़कर मानपर आता है । इसी प्रकार जब दूसरा कषायस्थान भी अन्तको प्राप्त होकर फिर आदि (क्रोध) स्थानपर आता है तब तीसरा इन्द्रियस्थान बदलता है । अर्थात् स्पर्शनको छोड़कर रसनापर आता है। आगे नष्टके लानेकी विधि बताते हैं ।
सगमाणेहिं विभत्ते सेसं लक्खित्तु जाण अक्खपदं । लद्धे रूबं पक्खिव सुद्धे अंते ण रूवपक्खेबो ॥४१॥ स्वकमानैर्विभक्ते शेष लक्षयित्वा जानीहि अक्षपदम् ।
लब्धे रूपं प्रक्षिप्य शुद्धे अन्ते न रूपप्रक्षेपः ॥ ४१ ॥ अर्थ-किसीने जितनेमा प्रमादका भङ्ग पूछा हो उतनी संख्याको रखकर उसमें क्रमसे प्रमादप्रमाणका भाग देना चाहिये। भाग देनेपर जो शेष रहे उसको अक्षस्थान समझ जो लब्ध आवे उसमें एक मिलाकर, दूसरे प्रमादके प्रमाणका भाग देना चाहिये, और भाग देनेसे जो शेष रहै उसको अक्षस्थान समझना चाहिये। किन्तु शेष स्थानमें यदि शून्य हो तो अन्तका अक्षस्थान समझना चाहिये, और उसमें एक नहीं मिलाना चाहिये । जैसे किसीने पूछा कि प्रमादका वीसवां भङ्ग कौनसा है ? तो वीसकी संख्याको रखकर उसमें प्रथम विकथाप्रमादके प्रमाण चारका भाग देनेसे लब्ध पांच आये, और शून्य शेषस्थानमें है इसलिये पांचमें एक नहीं मिलाना और अन्तकी विकथा ( अवनिपालकथा) समझना चाहिये । इसी प्रकार आगे भी कषायके प्रमाण चारका भाग देनेसे लब्ध और शेष एक २ ही रहा इस लिये प्रथम क्रोधकषाय, और लब्ध एकमें एक और मिलानेसे दो होते हैं इसलिये दूसरी रसनेन्द्रिय समझनी चाहिये । अर्थात् २० वां भङ्ग अवनिपालकथालापी क्रोधी रसनेन्द्रियवशंगतो निद्रालुः स्नेहवान् यह हुआ। अब उद्दिष्टका खरूप कहते हैं।
संठाविदूण रूबं उबरीदो संगुणित्तु सगमाणे । अबणिज अणंकिदयं कुजा एमेव सवत्थ ॥ ४२ ॥ संस्थाप्य रूपमुपरितः संगुणित्वा स्वकमानम्।
अपनीयानङ्कितं कुर्यात् एवमेव सर्वत्र ॥ ४२ ॥ . अर्थ-एकका स्थापन करके आगेके प्रमादका जितना प्रमाण है उसके साथ गुणाकार करना चाहिये। और उसमें जो अनङ्कित हो उसका त्याग करै । इसीप्रकार आगे भी करनेसे उद्दिष्टका प्रमाण निकलता है । भावार्थ-प्रमादके भङ्गको रखकर उसकी संख्याके निकालने
For Private And Personal