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गोम्मटसारः।
२.१ अधःप्रवृत्तकरणका लक्षण कहते हैं।
जमा उवरिमभावा हेछिमभावहिं सरिसगा होति । तमा पढमं करणं अधापवत्तोत्ति णिहि ॥४८॥
यस्मादुपरितनभावा अधस्तनभावैः सदृशका भवन्ति ।
तस्मात्प्रथमं करणमधःप्रवृत्तमिति निर्दिष्टम् ॥ ४८ ॥ अर्थ-अधःप्रवृत्तकरणके कालमेंसे ऊपरके समयवर्ती जीवोंके परिणाम नीचेके समयवर्ती जीवोंके परिणामके सदृश-अर्थात् संख्या और विशुद्धि की अपेक्षा समान होते हैं इसलिये प्रथम करणको आगममें अधःप्रवृत्त करण कहा है। अधःप्रवृत्तकरणके काल और उसमें होनेवाले परिणामोंका प्रमाण बताते हैं ।
अंतोमुहुत्तमेत्तो तत्कालो होदि तत्थ परिणामा। लोगाणमसंखमिदा उबरुवरि सरिसवड्ढिगया ॥ ४९ ॥
अन्तर्मुहूर्तमात्रस्तत्कालो भवति तत्र परिणामाः।
लोकानामसंख्यमिता उपर्युपरिसदृशवृद्धिगताः ॥ ४९ ॥ अर्थ-इस अधःप्रवृत्तकरणका काल अन्तर्मुहूर्त मात्र है, और उसमें परिणाम असंख्यातलोक प्रमाण होते हैं, और ये परिणाम ऊपर ऊपर सदृश वृद्धिको प्राप्त होते गये हैं । अर्थात् यह जीव चारित्रमोहनीयकी शेष २१ प्रकृतियोंका उपशम या क्षय करनेके लिये अधःकरण अपूर्वकरण अनिवृत्तिकरणोंको करता है । उसमें से अधःकरण श्रेणि चढ़नेके सम्मुख सातिशय अप्रमत्तके होता है, और अपूर्वकरण आठवें और अनिवृत्तकरण नववें गुणस्थानमें होता है । भावार्थ-करण नाम आत्माके परिणामोंका है । इन परिणामोंमें प्रतिसमय अनन्तगुणी विशुद्धता होती जाती है । जिसके बलसे कौंका उपशम तथा क्षय
और स्थितिखण्डन तथा अनुभागखण्डन होते हैं। इन तीनों करणोंका काल यद्यपि सामान्यालापसे अन्तर्मुहूर्तमात्र है, तथापि अधःकरणके कालके संख्यातवें भाग अपूर्वकरणका काल है, और अपूर्वकरणके कालसे संख्यातवें भाग अनिवृत्तकरणका काल है । अधःप्रवृत्तकरणके परिणाम असंख्यातलोक प्रमाण हैं । अपूर्वकरणके परिणाम अधःकरणके परिणामोंसे असंख्यातलोकगुणित हैं । और अनिवृत्तकरणके परिणामोंकी संख्या उसके कालके समयोंके समान है । अर्थात् अनिवृत्तकरणके कालके जितने समय हैं उतने ही उसके परिणाम हैं। पूर्वोक्त कथनका खुलासा विना दृष्टान्तके नहीं हो सकता इसलिये इसका दृष्टान्त इसप्रकार समझना चाहिये किः--कल्पना करो कि अधःकरणके कालके समयों का प्रमाण १६, अपूर्व करणके कालके समयोंका प्रमाण ८, और अनिवृत्तकरणके कालके समयोंका प्रमाण १ है। अधःकरणके परिणामोंकी संख्या ३०७२, अपूर्वकरणके परिणामोंकी संख्या ४०९६, और
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