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रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् ।
इन्द्रियोंकी जगहपर ०।१६।३२१४८।६४। स्थापन करना, ऐसा करनेसे दूसरे प्रस्तारकी अपेक्षा भी पूर्वकी तरह नष्टोद्दिष्ट समझमें आसकते हैं । सप्तमगुणस्थानका स्वरूप बताते हैं।
संजलणणोकासायाणुदओ मंदो जदा तदा होदि । अपमत्तगुणो तेण य अपमत्तो संजदो होदि ॥ ४५ ॥ संज्वलननोकषायाणामुदयो मन्दो यदा तदा भवति ।
अप्रमत्तगुणस्तेन च अप्रमत्तः संयतो भवति ॥ ४५ ॥ अर्थ-जब संज्वलन और नोकषायका मन्द उदय होता है तब सकल संयमसे युक्त मुनिकें प्रमादका अभाव हो जाता है इसही लिये इस गुणस्थानको अप्रमत्तसंयत कहते हैं। इसके दो भेद हैं एक खस्थानाप्रमत्त दूसरा सातिशयाप्रमत्त । खस्थानाप्रमत्तसंयतका निरूपण करते हैं।
णहासेसपमादो वयगुणसीलोलिमंडिओ णाणी। अणुवसमओ अखवओ झाणणिलीणोहु अपमत्तो ॥४६॥
नष्टाशेषप्रमादो व्रतगुणशीलावलिमण्डितो ज्ञानी ।
अनुपशमक अक्षपको ध्याननिलीनो हि अप्रमत्तः ॥ ४६॥ अर्थ-जिस संयतके सम्पूर्ण व्यक्ताव्यक्त प्रमाद नष्ट हो चुके हैं, और जो समग्रही महाव्रत अट्ठाईस मूलगुण तथा शीलसे युक्त है, और शरीर आत्माके भेदज्ञानमें तथा मोक्षके कारणभूत ध्यानमें निरन्तर लीन रहता है, ऐसा अप्रमत्त जबतक उपशमक या क्षपक श्रेणिका आरोहण नहीं करता तबतक उसको स्वस्थानअप्रमत्त अथवा निरतिशय अप्रमत्त कहते हैं। सातिशय अप्रमत्तका स्वरूप कहते हैं ।
इगवीसमोहखवणुवसमणणिमित्ताणि तिकरणाणि तहिं । पढम अधापवत्तं करणं तु करेदि अपमत्तो ॥४७॥ एकविंशतिमोहक्षपणोपशननिमित्तानि त्रिकरणानि तेषु ।
प्रथममधःप्रवृत्तं करणं तु करोति अप्रमत्तः ॥ ४७ ॥ अर्थ-अप्रत्याख्यान प्रत्याख्यान संज्वलन सम्बन्धी क्रोधमानमायालोभ तथा हास्यादिक नव नोंकषाय मिलकर इक्कीस मोहनीयकी प्रकृतियों के उपशम या क्षय करनेको आत्माके तीन करण अर्थात् तीन प्रकारके विशुद्ध परिणाम निमित्तभूत हैं, अधःकरण अपूर्वकरण अनिवृत्तिकरण । उनमेंसे सातिशय अप्रमत्त-अर्थात् जो श्रेणि चढनेके सम्मुख है वह प्रथमके अधःप्रवृत्त करणको ही करता है।
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