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और (४) आयुष्य। इन चार प्राणों में श्वासोच्छ्वास को भी प्राण की श्रेणी में लिया गया है। आधुनिक विज्ञान में भी श्वसन क्रिया को सजीवता का एक आधार माना गया है। आगम में भी चारों गतियों के पर्याप्तक जीवों में श्वासोच्छ्वास प्राण को अनिवार्य माना गया है। आगम में श्वसन क्रिया को प्रतिपादित करने वाले आन, प्राण, उच्छ्वास एवं निःश्वास शब्दों का प्रयोग हुआ है। सभी जीव ये चार क्रियाएँ करते हैं। उनमें स्वाभाविक रूप से श्वास ग्रहण करने की क्रिया को आन एवं छोड़ने की क्रिया को प्राण कह सकते हैं तथा ऊँचा श्वास लेने एवं श्वास बाहर निकालने को उच्छ्वास एवं निःश्वास कहा जा सकता है। कुल मिलाकर ये चारों शब्द श्वसन क्रिया को ही अभिव्यक्त करते हैं। यह श्वसन क्रिया मनुष्यों, पशुओं, पक्षियों, कीड़ों-मकोड़ों आदि प्राणियों में तो हमें स्पष्ट दिखाई देती है, किन्तु आगम के अनुसार वैक्रिय शरीरधारी नैरयिकों एवं देवों में भी निरन्तर श्वसन क्रिया चलती रहती है। भगवान महावीर से उनके प्रमुख शिष्य इन्द्रभूति गौतम ने प्रश्न किया कि द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय जीवों में होने वाले आन, प्राण एवं श्वासोच्छ्वास को तो हम जानते-देखते हैं, किन्तु पृथ्वीकाय से वनस्पतिकाय पर्यन्त के एकेन्द्रिय जीव में आन, प्राण एवं श्वासोच्छ्वास होता है या नहीं? भगवान ने उत्तर दिया-हे गौतम ! ये पृथ्वीकायिकादि एकेन्द्रिय जीव भी श्वासोच्छ्वास करते हैं। इनमें भी आन-प्राण एवं उच्छ्वास-निःश्वास की क्रियाएँ होती हैं। आधुनिक विज्ञानवेत्ता वनस्पति में श्वसन क्रिया सिद्ध करने में सफल हो गए हैं, किन्तु पृथ्वीकायिकादि जीवों में श्वसन क्रिया सिद्ध करना उनके लिए अभी शेष है। महावीर की दृष्टि में पृथ्वीकायिकादि सभी जीव श्वसन क्रिया करते हैं। पृथ्वीकायिकादि जीव एकेन्द्रियों को ही श्वासोच्छ्वास के रूप में ग्रहण करते हैं। नैरयिक जीव श्वासोच्छ्वास के रूप में अनिष्ट, अकान्त, अप्रिय एवं अमनोज्ञ पुद्गलों को ग्रहण करते हैं तो देव इष्ट, कान्त, प्रिय, मनोज्ञ आदि पुद्गलों को ग्रहण करते हैं। तिर्यञ्चगति के जीवों एवं मनुष्यों के द्वारा श्वासोच्छ्वास में क्या ग्रहण किया जाता है, इसका स्पष्ट उल्लेख नहीं है, किन्तु ये भी वर्ण, गंध, रस एवं स्पर्श से युक्त पुद्गलों को ही श्वास-प्रश्वास के रूप में ग्रहण करते हों
और छोड़ते हों ऐसा सम्भव है। विज्ञान की मान्यता के अनुसार मनुष्यादि जीव ऑक्सीजन गैस को श्वास रूप में ग्रहण करते हैं तथा कार्बन डाइऑक्साइड गैस को निकालते हैं। विज्ञान की दृष्टि से ये दोनों वायु हैं, किन्तु सजीव हैं या निर्जीव, यह एक प्रश्न उठता है, दूसरा प्रश्न यह भी उठता है कि मनुष्यादि जीव श्वास के रूप में वायु के माध्यम से पुद्गलों को ग्रहण करते हैं या वायु को अथवा दोनों को? यह विचारणीय है। श्वासोच्छ्वास क्रिया का काल चौबीस दण्डक के जीवों में अलग-अलग है। भाषा
द्वीन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय तक के पर्याप्तक जीवों में भाषा का प्रयोग होता है। भाषा पर्याप्ति पूर्ण कर लेने पर इन जीवों में अपनी बात कहने की क्षमता प्राप्त हो जाती है। भाषा का प्रयोग हमें मनुष्यों में जिस प्रकार प्रभावशाली ढंग से होता दिखाई देता है उतना अन्य जीवों में नहीं। पशु-पक्षियों में भी हमें यत्किंचित् भाषा का प्रयोग दिखाई देता है, किन्तु लट, चींटी, मक्खी जैसे विकलेन्द्रियों में तो इसके प्रयोग का हमें कोई साक्षात् बोध नहीं होता है, किन्तु आगम उनमें भी भाषा का व्यवहार स्वीकार करता है। चींटियों में ऐसा व्यवहार अनुमित भी होता है। जो सहयोग एवं सहकर्मिता उनमें देखने को मिलती है वह बिना भाषा-व्यवहार के सम्भव नहीं है।
भाषा में शब्दों का प्रयोग होता है। जैसे शब्द पौद्गलिक हैं वैसे 'भाषा भी पौद्गलिक हैं। जैनागमों के अनुसार भाषा का मूल कारण जीव है। जीव जब भाषावर्गणा के पुद्गलों को ग्रहण करता है तभी वह उन्हें भाषा के रूप में अभिव्यक्त करता है। भाषा की उत्पत्ति शरीर से मानी गई है तथा उसका आकार वज्र की भाँति स्वीकार किया गया है। भाषा का अन्त लोकान्त में होता है, अर्थात् भाषा के पुद्गल लोक के अन्त तक पहुँच सकते हैं। ऐसा होने पर भी जैनों ने भाषा को नित्य नहीं माना है। भाषा लोकान्त तक पहुँचकर अथवा संख्यात योजनों तक जाकर विध्वंस को प्राप्त हो जाती है। ___भाषा के सम्बन्ध में दार्शनिकों ने गहन विचार किया है। मीमांसक एवं वैयाकरण शब्द को नित्य मानते हैं। बौद्धदार्शनिक शब्द को अनित्य एवं कृतक मानते हैं। वाक्यपदीप में भर्तृहरि ने शब्द को ब्रह्मरूप प्रतिपादित किया है, यथा
“अनादिनिधनं ब्रह्म शब्दतत्त्वं यदक्षरम्।
विवर्ततेऽर्थभावेन प्रक्रिया जगतो यतः॥२ अर्थात् शब्दतत्त्व अनादिनिधन, अक्षर एवं ब्रह्मरूप है। उससे ही जगत् की अर्थरूप में परिणति होती है। काव्यादर्श में दण्डी ने शब्द के महत्त्व पर इस प्रकार प्रकाश डाला है
"इदमन्धतमः कृत्स्नं जायेत भुवनत्रयम्।
यदि शब्दाह्वयं ज्योतिरासंसारान दीप्यते॥"३ अर्थात् यदि संसार में शब्द नामक ज्योति प्रदीप्त नहीं होती तो समस्त संसार गहन अंधकारमय हो जाता। शब्द से हमारा समस्त व्यवहार होता है, इसलिए उसके अभाव में संसार अंधकारमय है।
सर्वार्थसिद्धि में शब्द को दो प्रकार का बतलाया है-(१) भाषात्मक और (२) अभाषात्मक। अभाषात्मक शब्द अचेतन जड़ से उत्पन्न होते हैं। ये दो प्रकार के होते हैं-(१) प्रायोगिक एवं (२) वैनसिक। जो शब्द बादलों के गर्जन की भाँति बिना प्रयत्न के उत्पन्न होते हैं वे वैनसिक शब्द हैं तथा जो शब्द प्रयत्न द्वारा उत्पन्न होते हैं वे प्रायोगिक शब्द कहलाते हैं। वीणा, घण्टा आदि के शब्द इस दृष्टि से प्रायोगिक हैं। प्रायोगिक शब्द के पाँच प्रकार कहे गए हैं-(१) तत, (२) वितत, (३) घन, (४) शुषिर और (५) संघर्ष। भाषात्मक शब्द भी दो प्रकार का होता है-(१) साक्षर और (२) अनक्षर। अक्षरयुक्त शब्द साक्षर हैं तथा द्वीन्द्रियादि जीवों के द्वारा कहे गए शब्द अनक्षर हैं।
१. द्रव्यानुयोग, भाग १, पृ. ५१५ २. वाक्यपदीप १/१
३. काव्यादर्श १/४
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