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धन्य-चरित्र/22 गुरु-स्थान को प्राप्त नर-रत्नों का प्रतिष्ठान- स्वरूप श्री प्रतिष्ठानपुर नामक नगर था। उस नगर के परिसर में गोदावरी नामक नदी बहती थी। उस विषय में कवि उत्प्रेक्षा करता है-मैं मानता हूँ, कि गोदावरी नदी के जल में अनेक स्वर्ण, रत्न, अलंकार आदि से युक्त नारियाँ स्नान के लिए आती हैं। जल-क्रीड़ा करते हुए उनके कण्ठ आदि अंगों से परिच्युत होकर नदी के प्रवाह से प्रवाहित रत्नों द्वारा ही समुद्र का नाम रत्नाकर प्रसिद्ध हुआ।
उस नगर में प्रचण्ड काँति के गुणों से युक्त जितशत्रु नामक राजा राज्य करता था। जिसकी आज्ञा के भय से शत्रुओं द्वारा प्रीति से मित्रों के प्रियकर व्यवहार किया जाता था। उस भूपति की तलवार की नयी-नयी धार मानो धारा-प्रवाह मेघ से प्रकटित थी। जिस प्रकार प्रचण्ड मेघ की धारा में पर्वत भी पृथ्वी-तल में निमग्न हो जाते हैं, उसी प्रकार उसके मार्ग को रोकनेवाले पर्वत के समान प्रचण्ड शत्रु भी उसके प्रताप रूपी समुद्र में डूब जाते थे। जगत में उस राजा के चार स्वरूप दृष्टिगोचर होते थे-ऐसा लोग मानते थे। जो गुरु अर्थात् कुलवृद्ध थे, वे विनय आदि गुणों से उसे बालक मानते थे। जो शत्रु थे, वे शौर्य आदि गुणों से उसे काल अर्थात् यम मानते थे। नागरिक लोग न्याय-निष्ठा से उसे राम मानते थे और नगर की युवतियाँ उसके अद्भुत रूप से उसे कामदेव मानती थीं।
उसी नगर में यश से धवलित, नागरिकों के मध्य दानादि गुणों से श्रेष्ठ, यथा नाम तथा गुणवाला धनसार श्रेष्ठी था। उस श्रेष्ठी के दानादि गुणों के द्वारा वणिक-पुत्रों के समूह की तरह स्पर्धा से बंधी हुई यश-सुरभि दसों दिशा में परिव्याप्त थी। उसके चित्त की लज्जाशीलता, दयालुता आदि गुणों की प्रमुखता से होनेवाली गरिमा अर्थात् मनोहरता किसी के द्वारा भी कहने में शक्य नहीं थी। उसके हृदय में त्रिजगत्पति जिनेश्वर देव नित्य-स्थिति रूप से बिराजमान थे। अतः वह नित्य ही जिनेश्वर के ध्यान में तत्पर रहता था।
उस व्यवहारी श्रेष्ठी के शील आदि गुणों से युक्त शीलवती नामक प्रिया थी। अपने कुल की लज्जा व मर्यादा के अनुकूल वह घर के भार का वहन करती थी। श्री जिनेश्वर देव के धर्म का अनुराग रग-रग में अस्थि-मज्जा की तरह बहता था। उसके रूप-सौन्दर्य की शोभा एवं अति स्वच्छ स्वभाव के कारण सुरलोक की रमणियाँ भी उसकी उपमा को प्राप्त नहीं होती थी। उन दोनों के सुखपूर्वक गृहस्थ आश्रम व्यतीत करते हुए क्रम से तीन पुत्र प्राप्त हुए। अर्थियों को धन देकर सुख देनेवाले के समान धनदत्त प्रथम पुत्र का नाम था। दूसरे का नाम धनदेव था, मानो लक्ष्मी के धनदेव के ही समान हो। तीसरा नाम से धनचन्द्र