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धन्य-चरित्र/20 चौराहे-चौराहे पर लोगों के टोले के टोले आश्चर्य को प्राप्त हुए। इस विश्वभूति को क्या हुआ? जो दान के नाम से भी काँपता था, वह आज अगणित द्रव्य दान में दे रहा है।
इस प्रकार थोड़े ही समय में नगर-भर में बात फैल गयी। लोगों ने पहले तो सुनकर विश्वास नहीं किया। पर जब देखा, तो आश्चर्य को प्राप्त हुए।
कुछ अति परिचित लोग पूछने लगे-हे विश्वभूति! तुम्हें क्या हुआ? पहले कभी दान का अनुभव ही नहीं किया, तो अब कैसे दान का मनोरथ उत्पन्न हुआ?
द्विज ने कहा-भाई! इतने दिनों तक अविद्या तथा विपर्यास से ज्ञात नहीं हुआ। अब तो शास्त्र के परिचय से रहस्य पा लिया है। दान–भोगादि के बिना लक्ष्मी नरक-प्रदायिनी है, उभय लोक से भ्रष्ट करती है। अतः दान दे रहा हूँ।
कुछ ही क्षणों में ये सारी बातें कुछ लोगों ने उस द्विज के पुत्रों से कही-अरे! सुनो। तुम्हारे पिता खूब दान दे रहे हैं। तब उसके पुत्रों ने कहा-"भाई! क्यों मजाक करते हो? पता नहीं, किस दुष्ट कर्म से हमारा सम्बन्ध हुआ है? क्या किया जाये? सम्पूर्ण त्याग, भोग आदि का संयोग प्राप्त होने पर भी हम दारिद्र्य भाव से व्यवहार करते हैं। तुम पुनः क्यों हमारा पेट जला रहे हो?"
उस व्यक्ति ने कहा-"नहीं-नहीं। मैं खुद देखकर आ रहा हूँ।" इसके बाद किसी दूसरे ने भी इसी प्रकार कहा। फिर तीसरे ने भी कहा। तब आशंकित होते हुए पुत्रादि पिता के सम्मुख गये। जैसा सुना था, वैसा ही देखकर आश्चर्य को प्राप्त हुए?
पिता को कहने लगे-“हे पुत्रों! मैंने अब जाना है कि लक्ष्मी नरक-प्रदायिनी है। इसलिए यथा इच्छा भोगों को भोगूंगा। दान दूंगा। इतना काल मैंने व्यर्थ ही गँवा दिया। तुम लोगों के लिए भी मैं अन्तराय-कारक बना। अब तुम लोग भी द्रव्य ग्रहण करो और यथा-इच्छा सुख में रमण करो।
उस महा-कृपण को इस प्रकार बोलते हुए तथा मुट्ठी भर-भर कर दान देते हुए देखकर समस्त स्वजनों तथा परिजनों ने कहा-"निश्चय ही इस पर भूत का आवेश हुआ है, जिससे यह असंबद्ध प्रलाप करता है एवं द्रव्य विकीर्ण करता है। इसे घर ले जाकर कुछ भी मंत्रादि औषध करो, जिससे यह स्वभाव में स्थित हो जाये।"
सभी एक होकर उसे घर ले गये, तो पत्नी को भी इसी प्रकार बोलने लगा-"हे मुग्धे! यह दरिद्र-वेष त्यागो। अच्छे-अच्छे वस्त्र-आभूषण धारण करो।"
वह भी चकित हुई। इन्हें क्या हो गया? क्यों असंभव बातें बोल रहे हैं।