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धन्य-चरित्र/18 राजा जिस किसी को भी धन देने के लिए कहता, वह निर्दयी होने से उसे धन नहीं देता था। धन के बदले उल्टे वह उसे कष्ट देता था। राजा के सामने उसके दोषों को कहकर राजा द्वारा उस पर क्रोध करवाता था। अगर कोई पुनः राजा के समीप जाते, तो राजा की दृष्टि कोपयुक्त देखकर सभी मौन होकर रह जाते थे। किसी-किसी को थोड़ा धन देकर बही में पूरा लिख देता था। इस प्रकार से समय बीतने के साथ ही बहुत से लोग एवं राजकीय कर्मचारी उसके दुश्मन हो गये थे।
एक बार राजा के अधिकारियों को घोड़े पर बैठे हुए देखकर भाण्डागारिक सोचने लगा-मैं भी राज्याधिकारी हूँ। अतः मैं भी घोड़े पर आरूढ़ होकर महान विभूति से युक्त होकर चतुष्पथ पर जाऊँ। इस प्रकार विचार करके घुड़सवारी करते हुए सुखासन पर आरूढ़ होकर महान विभूति के साथ चलने लगा। उसकी अश्वचारिका देखकर सभी राजकीय लोग क्रुद्ध हो गये। अवसर पाकर राजा के आगे कहा-"आपका धन यह स्वेच्छा से व्यय करता है।" और भी शिकायतें की।
राजा ने उसे बुलाकर पूछा-"इनका द्रव्य क्यों नहीं देते?"
तब उनके दोषों को प्रकट करते हुए कहने लगा-"यह तो बहुत खाता है, इसे क्या देना?"
यह सब सुनकर राजा ने कहा-"अहो! मेरे द्वारा आदेश दिये जाने पर भी यह नहीं देता है, बल्कि चुगली करता है, तो अन्यों को तो यह निश्चय ही दुःखदायक होगा।"
राजा के इस प्रकार कहे जाने पर सभ्यों द्वारा भी खेदित होकर वैसा ही कहा गया। तब राजा ने क्रुद्ध होकर उसका सर्वस्व लेकर देश से निकाल
दिया।
इसी प्रकार हे द्विज! तुम्हारे द्वारा भी निर्दय, निर्विवेक तथा दूषण सहित कष्टतर तपस्या किये जाने पर कर्म परिणाम रूपी राजा ने पापानुबंधी पुण्यवाले तुमको मुझ रूपवाली लक्ष्मी के रक्षक रूपी भाण्डागार की तरह नियुक्त किया है। अतः तुम धन-रक्षक बनकर दान, भोग आदि के द्वारा धन का उपभोग करते हो, तो मैं और कर्म-परिणाम रूपी राजा कुपित हो जायेंगे। अतः द्रव्य-रक्षक के रूप में तुम मेरे किंकर हो। श्रेष्ठी के रूप में तुम्हारी तुलना कैसे हो?"
__ इस प्रकार के लक्ष्मी के कथन को सुनकर द्विज ने कहा-"हूँ! तुम्हें स्थिर करने का रहस्य मैंने जान लिया है। जो मैं पापानुबंधी पुण्य का स्वामी हूँ, तो पुण्य जब तक खर्च नहीं होता, तब तक तुम मेरे घर में हो। तब क्या चिंता है? आज ही प्रभात में दान–भोग आदि की निश्चित रूप से प्रवृत्ति करके मैं भी