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धन्य - चरित्र / 19
तुम्हे दासी रूप बना लूँगा ।"
लक्ष्मी ने कहा - " अपना मुख तो देखो । भारवाहक को उठाने के लिए दी गयी गाँठड़ी क्या भारवाहक की हो जाती है? हे मूर्ख - शिरोमणि! पूर्व जन्म में किये गये शुद्ध-धर्म से, लक्ष्मी आदि अनुकूल होने से ही दान- भोग आदि करना शक्य होता है, अन्यथा नहीं । अगर तुम हर्षित होकर दान - भोग आदि करोगे, तो मैं तुम्हारे नौ अंगों में डाम दूँगी। इसे तुम सत्य ही मानना ।"
विप्र ने कहा- "मेरे द्वारा उपार्जित द्रव्य मैं ही दान- भोग आदि में खर्च करूँगा, मुझे कौन मना कर सकता है? इससे तो बल्कि मेरी यश - शोभा में वृद्धि ही होगी।"
लक्ष्मी ने कहा - "इस प्रकार की इच्छा कदापि न करना, क्योंकि कर्म-फल रूपी राजा की आज्ञा का तीन जगत में कोई भी उल्लंघन नहीं कर सकता। जो तीन जगत के स्वामी हैं, वे जगत ध्वंसन के रक्षण में तो समर्थ हैं, पर अनन्त बल से युक्त तीर्थंकर भी कर्म परिणाम के अनुकूल ही प्रवृत्ति करते हैं। वे भी भोग का उदय होने पर भोगों को भोगकर ही कर्म परिणाम के अनुकूल दान देकर व्रत ग्रहण करते हैं। अतः तुम कर्म परिणाम रूपी राजा के प्रतिकूल होकर कितनी - मात्रा में दान व भोग करोंगे? फिर भी अगर करोगे, तो मैं तुम्हारे नौ अंगों में डाम दूँगी।”
विप्र ने कहा- " जाओ - जाओ ! तुम से जो बने, वो कर लो।"
लक्ष्मी ने कहा - "तो फिर ठीक है, ऐसा ही हो जाये। जो तुम्हे रुचे, वही करो।" यह कहकर लक्ष्मी चली गयी ।
वह पलंग पर सोये-सोये विचार करने लगा - "प्रभात होने पर कुछ परिमाण में धन लाकर उदार वृत्ति से जिस प्रकार यह श्रेष्ठी त्याग और भोग करता है, उसी प्रकार उससे भी ज्यादा करूँगा। धन तो मेरे पास इससे भी अधिक है। अतः देशान्तर में जिस प्रकार यश का प्रचार हो, वैसा ही करूँगा । इस प्रकार विचार करते हुए रात्रि बिताकर प्रभात में सेठ के पास से पाँच हजार रूपये लेकर एक कर्मचारी के द्वारा बहुत सारा द्रव्य खर्च करके भव्य व नवीन वस्त्र मँगवाकर, उन्हें धारण करके अंग- उपांग आदि में आभूषणों को धारण करके मार्ग में जाते हुए दीन-हीन याचकों को मुट्ठी भर - भर कर दान देने लगा । याचक भी आश्चर्य चकित रह गये-अहो! आज तो महान आश्चर्य है कि विश्वभूति दान दे रहा है ।
इस प्रकार लोग हजारों की संख्या में मिलकर कहने लगे कि हे मित्रों ! दौड़ो -दौड़ो । आओ, कौतुक दिखाता हूँ। लोग दौड़ते हुए आये । इस प्रकार
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