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धन्य-चरित्र/17 होकर विनय सहित, दया सहित, नय सहित, विवेक सहित, हर्षपूर्वक, उल्लास-पूर्वक एक ही शरण रूप, विष-गर -अन्योन्य अनुष्ठान रहित, निदान रहित श्रीमद् जिनधर्म आराधित है, जिसकी अतुल फल-लब्धि है। इस भव में भी दान-पुण्य आदि विशिष्ट कार्यों में अहर्निश द्रव्य व्यय करता है। धर्म की ईहा को कभी नहीं छोड़ता। भोग तो पूर्वकृत धर्म के आनुषांगिक फल होने से इसके द्वारा भोगे जाते हैं। इसी सुगंध के समान अनुषांगिक फल होता है। अतः मैं पूर्व जन्म में दोष रहित धर्म बल से आत्मसात की गयी हूँ। पुनः इस भव में भी दान, पुण्य, विनय, लज्जा, दाक्षिण्य, आर्जव आदि गुणों से नियंत्रित होकर इसकी सेवा भक्ति करती हूँ। शास्त्र में भी कहा गया है
भोज्यं भोजनशक्तिश्च रतिशक्तिर्वराः स्त्रियः।
विभवो दानशक्तिश्च सदाज्ञा तपसः फलम् ।। भोज्य पदार्थ होने पर भोजन की शक्ति, श्रेष्ठ स्त्रियाँ होने पर रति शक्ति, वैभव होने पर दान शक्ति-ये सभी सद् आज्ञा में किये गये तप के फल होते हैं।
तुम्हारे द्वारा तो पूर्वजन्म में केवल निर्दयता, निर्विवेकता से अज्ञान कष्ट करके पापानुबंधी पुण्य उपार्जित किया गया है, जिसके उदय से पाप मति ही तुम में रहती है, क्योंकि दोष सहित किये गये कष्ट के फल के द्वारा दोष सहित ही वैभव प्राप्त होता है। इस जन्म में पुनः लोभ से अभिभूत असत्य भाषण आदि पाप-स्थानों का सेवन करने से, वैभव प्राप्त करके भी बिना दिये, बिना खाये नरक आदि में जाता है। कदाचित् सत्संगति करने में दानादि की मति होती भी है, तो भी कोई न कोई अंतराय आ ही जाती है, जिसमें उत्पन्न मति भी नष्ट हो जाती है। दान करने के लिए समर्थ नहीं होता।
जैसे-कोई कंजूस, निर्दयी पुरुष धन की लालसा से तथा महत्वाकांक्षी होने से बहुत कष्ट सहन करके भी एकाग्रता से राजा की सेवा करता है। बहुत दिनों बाद राजा ने जाना कि यह मेरी अहर्निश सेवा करता है। मेरे लिए कष्ट सहन करता है। अतः इसकी सेवा के फल के रूप में कोई भी अधिकार इसे दे
पुनः राजा ने विचार किया कि इसे क्या अधिकार दिया जाये? तब राजा ने चतुर बुद्धि से विचार किया-क्योंकि यह सेवा में दृढ़ है, पर कृपण और निर्दयी भी है। अतः इसे भाण्डागार का पद देना चाहिए। यह कृपण होने से द्रव्य का व्यय नहीं करेगा। दापित होने पर भी शीघ्र ही नहीं देगा। अतः इसी को ही यह अधिकार देना चाहिए, अन्य कोई इस पद के लिए योग्य नहीं होगा। इस प्रकार विचार करके राजा ने उसे भाण्डागारिक बना दिया।