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धन्य-चरित्र/15 कैसे पैदा हुई?"
विप्र ने कहा-"क्यों?"
तब श्रेष्ठी ने कहा-"सुनिए! क्या लक्ष्मी अपनी शक्ति से ठहरती है या धर्म की शक्ति से? यदि आत्म बल से रहती है, तो लोक में सभी धनार्थी बहुत ही कृपण होंगे। प्रतिदिन थोड़ा रांधनेवाले होने से द्रव्य का व्यय नहीं करेंगे। तब उनके घर में लक्ष्मी स्थिर रहनी चाहिए-यही योग्य जान पड़ता है। पर ऐसा दिखायी नहीं पड़ता। धर्म-बल से प्राप्त लक्ष्मी पुनः धर्म से जोड़ी जाये, तभी वृद्धि को प्राप्त होती है। जैसे कि जल में उगा हुआ वृक्ष पुनः जल-सिंचन से वृद्धि को प्राप्त होता है। पूर्व में कृत पुण्य-बल से प्राप्त लक्ष्मी पुनः पुण्य से बढ़ती है। ये भोग तो उसके आनुषांगिक फल है। जैसे-जल से सींचा जाता हुआ वृक्ष तो अखण्ड रहता है, उसमें फल आदि का प्राप्त होना उस वृक्ष का अनुषांगिक फल है। वृक्ष तो अखंड पुण्य-स्वरूप ही है। इसी प्रकार धर्म में भी जानना चाहिए।
जिस प्रकार कुएँ से जल निकाले जाने पर भी वह क्षय को प्राप्त नहीं होता। अगर नहीं निकाला जाता, तो वृद्धि को भी प्राप्त नहीं होता। इसी प्रकार धर्म से प्राप्त लक्ष्मी दान–भाग आदि में योजित किये जाने पर भी क्षय को प्राप्त नहीं होती, प्रत्युत बढ़ती ही है। इसमें कोई शक नहीं है। सभी दर्शनों तथा सभी शास्त्रों का एक ही कथन है। उन शास्त्रकारों से हम ज्यादा ज्ञानी नहीं है। अतः धर्म को मुख्य व्यवहार जानना चाहिए। भोग तो उसका आनुषांगिक फल है। अतः हे प्रियवर! विपरीत बुद्धि छोड़कर धर्म में रति करो।"
यह कहकर श्रेष्ठी तो अपनी शय्या पर गया और निद्रा के अधीन हो गया।
द्विज तो संदेश के झूले में पड़कर चिंता करने लगा - "धर्म व पुण्य से लक्ष्मी बढ़ती है-यह सभी शास्त्र कहते हैं, तो भी मिथ्या क्यों कहते हैं? खर्च करने पर तो सारा धन खर्च हो जाता है। कोई भी उसका रक्षक दिखाई नहीं देता।
इस प्रकार ध्याते हुए अर्ध-रात्रि के समय एक सुन्दर श्रेष्ठ तरुणी द्वार खोलकर कक्ष के अंदर आयी। समस्त वस्त्रालंकार से भूषित दिव्य-रूपवाली वह ब्राह्मण द्वारा देखी गयी। वह सोचने लगा-"अहो! यह सेठ मुझे तो धर्म का उपदेश देता है, पर इस प्रकार का पर-स्त्री-गमन का कार्य करता है। यह पराई स्त्री किसी भी प्रकार के पूर्व के संकेत से आयी है। इसकी पत्नी को तो मैं पहचानता हूँ, यह तो वह नहीं है। यह तो कोई पर-दारा है। यह श्रेष्ठी तो मासाहस पक्षी के तुल्य दिखायी देता है। इसके वचन में क्या प्रतीति? देखता हूँ,