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धन्य-चरित्र/14 काष्ठमय पुतलियाँ इस प्रकार की थीं, जो राजमहलों में भी नहीं होती । शय्या के चारों और कृष्णगुरु, कस्तुरी, अम्बर, तुरुष्क - प्रमुख धूप - द्रव्यों को चाँदी की घटिकाओं में डालकर जगाया गया था । उन धूपों का धूम्र चारों ओर महक रहा था । आम्र, चन्दन अत्तर आदि से विचित्र किये हुए वस्त्रादि की सुरभि इधर-उधर परिभ्रमण कर रही थी। जहाँ-तहाँ सोने-चाँदी आदि की फूल - दानियाँ आदि पात्रों को पड़ा हुआ देखकर द्विज के हृदय में बहुत चिन्ता उत्पन्न हुई ।
वह विचारने लगा—अहो ! इसकी मूर्खता ! क्यों इस प्रकार की चीजों में हजारों का द्रव्य खर्च किया? यह रचना किस कार्य में काम आयेगी ? इन चीजों को लेने में जितना द्रव्य लगता है, बेचने पर तो उसका चौथा भाग भी नहीं मिलता। बहुत सारा द्रव्य खर्च करने पर यह सेटक प्रमाण अगुरु प्राप्त होता है, जिसे अग्नि में डालकर यह राख बना डालता है, तो फिर हाथ में क्या आता है ? यह पुष्पों का समूह प्रभात होते ही फेंकने योग्य हो जाता है। ये दर्पण हजारों का मूल्य देने से प्राप्त होते हैं, पर सहज ही किसी के भी संघट्टन से चूर-चूर हो जाते हैं। कौड़ी - मात्र भी दाम इसके चूर्ण का नहीं मिलता। यह मूर्ख इस प्रकार का पागलपन क्यों करता है? इस प्रकार उसके चिंता करते हुए प्रहर रात्रि बीत गयी । श्रेष्ठी भी सोने के लिए ऊपर आया ।
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ब्राह्मण को जागते हुए देखकर पूछा - " द्विजवर ! अभी तक जाग रहे हो? सोये क्यों नहीं?"
द्विज ने कहा - " चिंता के कारण नींद नहीं आयी । "
श्रेष्ठी ने पूछा - " किसकी चिंता ? "
विप्र ने कहा - " आपकी चिंता । "
श्रेष्ठी ने चौंककर पूछा - " मेरी चिंता ? "
विप्र ने कहा - "हाँ । तुम्हारे धननाशक आचरण को देखकर बहुत चिंता होती है ।"
श्रेष्ठी ने पूछा - "वह आचरण क्या है ?"
द्विज ने कहा - " जो तुम अनर्थक व्यय करते हो ।"
श्रेष्ठी ने पूछा - "वह कैसे ?"
द्विज ने कहा - "यह पुष्पों का समूह एक प्रहर तक भोगने योग्य है। उसके बाद फेंकने योग्य हो जायेगा ।" इत्यादि जो-जो पूर्व में सोचा था, वह सभी श्रेष्ठी को बता दिया । इसलिए मुझे चिंता होती है कि इस प्रकार करते हुए भविष्य में आपकी क्या गति होगी ?
श्रेष्ठी ने उसकी पूरी बात सुनी, फिर हँसकर कहा - " द्विजवर ! आप जैसे वृद्ध, शास्त्रज्ञ तथा हेय - उपादेय को जाननेवाले को इस प्रकार की विपरीत बुद्धि