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अनेक भेद होते हैं।.
दूसरे शुक्लध्यान एकत्ववितर्क प्रविचार के बल से १२ वे गुणस्थान वाला वीतरागी मुनि जब ज्ञानावरण और दर्शनावरण अन्तराय कर्म का भी समूल क्षय कर देता है तब अनन्तज्ञान (केवल ज्ञान), अनन्तदर्शन, अनन्तवीर्य प्रगट होता है, यह योगकेवली नामक तेरहवां गुणस्थान है। मोहनीय कर्म के नष्ट होने से अनन्त सुख होता है इस तरह केवली महंत भगवान अन्तुष्ट के धारक सर्वज बीतराग होते हैं। उनके भाव मन योग नहीं रहता। काययोग के कारण उनका विहार होता है और वचन योग के कारण उनका दिव्य उपदेश होता है। दोनों कार्य इच्छा बिना स्वयं होते हैं।
आयु कर्म समाप्त होने से कुछ समय पहले जब योग का निरोध भी हो जाता है तब १४ वाँ प्रयोग केवली गुणस्थान होता है । अ इ उ ऋ लृ इन पाँच ह्रस्व अक्षरों के उच्चारण में जितना समय लगता है उतना समय इस गुणस्थान का काल हैं । केवली इस गुणस्थान में से समस्त प्रवाति कमों का नाश करके मुक्त हो जाते हैं ।
मुक्त हो जाने पर द्रव्यकर्म, भावकर्म, नोकर्म से रहित होकर सिद्ध अन्तिम शरीर से कुछ कम ग्राकार (मूर्ति) में हो जाते हैं और यात्मा के समस्त गुण विकसित हो जाते हैं। तदनन्तर एक ही समय में ऊर्ध्वगमन करके लोक के भग्र भाग में पहुंचकर ठहर जाते हैं। फिर उनको जन्म-मरण आदि नहीं होता। अनन्त काल तक अपने परम विशुद्ध स्वाधीन सुखानुभव में निमग्न रहते हैं ।
इस प्रकार जैन धर्म का संक्षेप में वर्णन किया गया है। आगे जैन किया जायगा और विषयानुसार जीवसमास का वर्णन किया जायगा भगवान महावीर स्वामी के चरित्र का वर्णन करेंगे ।
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धर्म की परम्परा का परिचय तथा लोक का वर्णन तत्पश्चात संक्षेप में २३ तीर्थकरों का एवं अन्त में