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साधक अपनी तपश्चर्या के द्वारा कर्मों की निर्जरा के लिये जो प्रयत्न करता है उसे अविपाक निर्जरा कहते हैं। इन दोनों निर्जराओं से होने वाले आत्मा के परिणाम को भाव निर्जरा कहते हैं। कर्म पुद्गल का आत्म प्रदेश से अलग होने का प्रयत्न करना द्रव्य निर्जरा है।।
मोक्ष तत्व-अपने प्रात्मा में लगे हये संपूर्ण कर्मों के नाश करने वाले प्रात्म परिणाम को भाव मोक्ष कहते हैं। प्रात्मा से संपूर्ण कर्म का अलग होना द्रव्य मोक्ष कहलाता है।
___ आश्रव से आने बाने कर्म के प्रावागमन को रोकना तत्पश्चात् निर्जरा के द्वारा पहले सत्ता में रहने वाले कर्मों का निर्गमन होने के बाद आत्मा सम्पूर्णपने कर्म के संसर्ग से अलग होकर अपने स्वरूप में स्थित होने का नाम मोक्ष है।
नौ पदार्थ-सात तत्व के साथ पाप और पुण्य को मिलाने से पदार्थ होते हैं। शुभ कषायी आत्म परिणाम को शुभयोग कहते हैं । अशुभ यात्म परिणाम को अशुभ योग कहते हैं। शुभ योग से पुण्य और अशुभ योग से पाप आत्मा में प्राकर प्रवेश करता है । एक ही आत्मा भिन्न-भिन्न समयों में शुभोपयोगी और अशुभोपयोगी होता है । और शुभोपयोग से युक्त आत्मा पुण्यजोवी कहलाता है तथा अशुभयोग से युक्त प्रात्मा पापजीवी कहलाता है।
शुभोपयोग से स्वर्ग और प्रशुभोपयोग से नरक गति मिलती है । इसलिये शुभाशुभ दोनों संसार के लिये कारण होते हैं। अर्थात् पाप और पुण्य संसार बृक्ष को बढ़ाने वाले जड़रूप यानी वृक्ष के मुल के समान ये दोनों है । आत्म साधन अर्थात् शुद्धोपयोग साधन होने पर्यन्त शुभोपयोग कुछ अंश में ठीक है, किन्तु अशुभोपयोग पाप का कारण होने से सर्वदा त्याज्य है।
गुण स्थान गुण स्थानों की संख्या चौदह है। मिच्छोसासण मिस्सो अविरवसम्मो य देसविरदो । विरता पमत्त इदरो अपुष्व प्राणिय सुहमो य॥ उवसंतखोणमोहो सजोग केवलिजिणो प्रजोगी य । चउवस जीवसमाण कमेण सिद्धा य णावरुवा ।। अर्थ-मिथ्यात्व, सासादन, मिश्र, अविरतसम्यक्तत्व, देशविरत, प्रमत्त, अप्रमत्त, अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण, सूक्ष्मसाम्प राय, उपशान्तमोह, क्षीणमोह, सयोगकेबली, अयोगकेवली ये १४ गुणस्थान है।
मोहनीय कर्म के उदय, उपशम, क्षय, क्षयोपशम से तथा योगों के कारण जो जीब' के भाव होते हैं उनको गुण स्थान कहते हैं।
शुद्ध बुद्ध अखण्ड अमूर्तिक, अनन्त गुण-सम्पन्न प्रात्मा का तथा वीतराग सर्वज्ञ ग्रहन्त भगवान् प्ररूपित तत्व, द्रव्य, पदार्थ, अहंतदेव, निग्रन्थ गुरु तथा जिनवाणी की श्रद्धा न होना, मिथ्यात्व गुणस्थान है। यह मिथ्यात्व कर्म के उदय से होता है। एकान्त, विपरीत, विनय, संशय अज्ञान रूप भाव इस गुण-स्थानवों के होते हैं।
मनन्तानुबन्धी–सम्बन्धी क्रोध पत्थर पर पड़ी हई लकीर के समान दीर्घकाल तक रहने वाला, मान पत्थर के स्तम्भ के समान न झुकने वाला, एक दूसरे में गुथी हुई बांस की जड़ों के समान कुटिल माया और मजीठ के रंग के समान अमिट लोभ होता है। प्रथमोपशम सम्यक्त्व-वाले व्यक्ति के जब इनमें से किसी भी कषाय का उदय हो जावे तब उसका सम्यक्त्व नष्ट हो जाता है किन्तु (कम से कम) एक समय और अधिक से अधिक मावली काल प्रमाण जब तक मिथ्यात्व का उदय नहीं हो पाता उस बीच की दशा में जो प्रात्मा के परिणाम होते हैं, वह सासादन गुणस्थान है। जैसे कोई मनुष्य पर्वत से गिर पड़ा हो किन्तु जब तक पृथ्वी पर न पहुँच पाया हो ।
राम्यग्मिथयात्व के उदय से जो सम्यक्त्व और मिथ्यात्व' के मिले हए मिश्रित परिणाम होते हैं जैसे दही और खांड मिला देने पर एक विलक्षण स्वाद होता है जिसमें न दही का स्वाद प्राता है,न केवल खांड़ का ऐसे ही मिथगुण स्थान बाले के न तो मिथ्यारव रूप ही परिणाम होते हैं, न केवल सम्यक्त्व रूप परिणाम होते हैं किन्तु दोनों भावों के मिले हुये विलक्षण परिणाम हुआ करते हैं । इस गुण स्थान में न तो कोई आयु बन्धती है और न मरण होता है, जो आयु पहले बांध ली हो उसी के पनुसार सम्यक्त्व या मिथ्यात्व भाव प्राप्त करके मरण होता है।
अनन्तानुबन्धी, क्रोध, मान, माया, लोभ तथा मिथ्यात्व और सम्यक प्रकृति इन सात प्रकृतियों के उपशम होने से क्षय
-Nagale
IMAR