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११--प्राचार्य भक्ति-प्राचार्य की भक्ति करना प्राचार्य भक्ति कहलाता है। १२- उपाध्याय भक्ति-उपाध्याय परमेष्ठी की भक्ति करना बहुश्रत भक्ति है। १३-जिन वाणी भक्ति-जिनेन्द्रदेव की वाणी का सत्कार करना। १४–आवश्यक का परिहारिणि छः मावश्यक कर्मों को सावधानी से पालन करना आवश्यक भक्ति है। १५–प्रभावना भक्ति-जैन धर्म का प्रभाव फैलाना मार्ग प्रभाबना है। १६-प्रवचन भक्ति-साधर्मीजन से अगाध प्रेम करना प्रवचन वात्सल्य है।
२२ परिषह इसी प्रकार श्रावक के योग्य मुनि का २२ परिषह का वर्णन किया है। जो निम्न है।
:-क्षण, पिपासा, ३-शीत, ४-उष्ण, ५-दंशमशक, ६-नग्नता, ७ अरति, ८-स्त्री, ह-निषद्या, १०-चर्या, ११-शय्या १२-याक्रोष, १३-बध, १४-याचना, १५-अलाभ, १६-रोग, १७-तृणस्पर्श, १८-मल, १६-सत्कार, पुरस्कार, २०-प्रशा, २१-प्रज्ञान प्रौर २२-प्रदर्शन।
ये २२ परिषह पूर्वोपार्जित कर्मों के उदय से होते हैं। किस कर्म के उदय से कौन सी परिषह होती है, इसका वर्णन
चारित्र-शुद्धात्मभावना में तन्मय होना निश्चय चारित्र है । यह चारित्र व्यवहार और निश्चय भेद से दो प्रकार का है। शुद्ध निश्चय चारित्र जब तक प्राप्त न हो तब तक व्यवहार चारित्र साधनाभूत है।
१-सामायिक-व्रत धारण समिति का पालन, कषाय का निग्रह, इन्द्री निग्रह या सम्पूर्ण परवस्तु से भिन्न प्रात्मस्वरूप का ध्यान करना या मोह ममता का त्याग करना।
२-छेदोपस्थापना-प्रमाद न हो इस प्रकार जागृत होकर व्रत का निरतिचार पालन करना और प्रमाद से हरा दोषों का प्रायश्चित करना या दीक्षा का कम करना खेदोपस्थापना कहते हैं।
3-परिहार विद्धि-पाँच समिति और तीन गुप्ति को पालन करके दोषमुक्त होना परिहार विशुद्धि कहलाती है। ४-संज्वलन-सूक्ष्म लोभकषाय से युक्त संयमी के चारित्र को सूक्ष्मसापंराय चारित्र कहते हैं।
५-यथाख्यात चारित्र ११ और १२वें गूणस्थान में रहने वाले संयमी अर्थात मुनियों में और सयोगकेवली प्रयोग केवलियों में उत्पन्न होने वाले यथास्थित प्रात्मोपलब्धिरूप चारित्र को यथाख्यात चारित्र कहते हैं।
बारह प्रकार का तप छह प्रकार के बाद्य तप और छह प्रकार के अन्तरंग तप हैं।
१-बाह्य तप-अमशन उपवास करना, २-ौमोदर्थ-कुछ कम खाना, ३-व्रतपरिसंख्यान-पाकडी नियम के अनसार यदि विधि मिले तो आहार लेना अन्यथा उपवास करना, ४-रस परित्याग-कोई न कोई रस का त्याग करना. ५: काय-क्लेश-शीतोष्णादि परिषह सहन करना, ६-विविक्त शव्यासन-एकान्त स्थान में बैठना और सोना, ये छह प्रकार के बाह्य तप कहलाते हैं।
अन्तरंग तप-१-प्रायश्चित किये हुए दोषों की निवृत्ति के लिये गुरु के पास जाकर प्रायश्चित मांगना. _ बिनय-अपने से बड़े गुरु अथवा सज्जन पुरुषों का विनय करना, ३-वय्यावृत्य-अशक्त रोगी आदि साधु पुरुषों की सेवा करना, ४--स्वाध्याय-विनय के साथ शास्त्र को पढ़ना, ५- उत्सर्ग-शरीर के ऊपर मोह का परित्याग करना, ६-ध्यानमात्मस्वरूप का चिन्तवन करना ये छह प्रकार के अन्तरंग तय कहलाते हैं।
निर्जरा तत्व-संबर के अनुसार आत्मप्रदेश में पाने वाले कर्मों का रोकना, अर्थात पुनः कर्म पात्म प्रदेश में नमा जायें। इस प्रकार इन कर्म समूहों को पूर्णतया निर्जरा करने का प्रयत्न करना-पुरुषार्थ करना निर्जरा तत्व कहलाता है। अपनी स्थिति पूर्ण हो जाने के पश्चात कर्म अपने आप निकल जाने को सविपाक निर्जरा कहते हैं।
साधक अपनी तपश्चर्या के द्वारा कर्मों की निर्जरा के लिये जो प्रयत्न करता है उसे अविपाक निर्जरा कहते हैं। इन दो