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अनेकान्त 63/1, जनवरी-मार्च 2010
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वाला है तथा आंगोपांग नामकर्म के उदय से मनोवर्गणा के स्कन्ध से उत्पन्न हुआ है अतः द्रव्यमन कहते हैं। यह अत्यंत सूक्ष्म तथा इन्द्रियगोचर है। (वृहद्र्व्य संग्रह 12/30/6)
भावमन वीर्यान्तराय नोइन्द्रियावरण क्षयोपशमापेक्षया आत्मनोविशुद्धि र्भाव मनः। अर्थात् वीर्यान्तराय और नो इन्द्रियावरण कर्म के क्षयोपशम की अपेक्षा रखने वाले आत्मा की विशुद्धि को भावमन कहते हैं। (जै.सि.कोष भाग 3पृ.381) दोनों मन कथंचित् मूर्त व पुद्गल है। इस प्रकार पूज्यपाद स्वामी ने और अकलंकदेव ने मन पर विशेषतः विचार किया है। अक्लंक देव ने सूत्र 114 पर अपने तत्वार्थ राजवार्तिक में लिखा है।
“अनिन्द्रियं मनोऽनुदरावत्" इस भाष्य की व्याख्या करते हुए वे लिखते हैं- मनोऽन्तः करणमनिन्द्रियमित्युच्यते। कथं इन्द्रियप्रतिषेधेन मन उच्यते। यथाऽनुदरा कन्या इति। __ मन को अन्त:करण या अनिन्द्रिय कहा जाता है इसका अर्थ यह नहीं कि मन इन्द्रिय नहीं है। हम लोग गर्भधारण करने की क्षमता विहीन कन्या को कहते हैं कि "यह बिना पेट की औरत है" इसका यह अर्थ नहीं कि उसके पेट नाम की चीज नहीं है बल्कि वह गर्भधारण करने से असमर्थ हैं। इसी प्रकार मन को अनिन्द्रिय कहने का मतलब यह नहीं कि वह इन्द्रिय नहीं है। मन यद्यपि इन्द्रियों की सहायता से सारे कार्य करता है। पर उसमें किसी विशेष कर्म संपन्न करने की प्रवृत्ति नहीं है। चक्षु आदि इन्द्रियों की तरह मन और अन्य इन्द्रियों की विभिन्नता इस रूप में निरूपित की जाती है। चक्षु आदि इन्द्रियों की अवस्था कर्मों के संपर्क में आकर प्रभाव ग्रहण करती है लेकिन मन वस्तुओं के निकट संपर्क में आकर प्रभाव ग्रहण नहीं करता। भाव मन तो आत्म विशुद्धि के कारण अंतरंग तक प्रभाव स्थापित करता है।
अतः जैन दर्शन में मन की अवधारणा अन्य अजैन दर्शनों की अपेक्षा भिन्न ही है। इसका संचालन समुन्नत आत्मा के रूप में होता है।
वैदिक साहित्य में मन को इन्द्रिय नहीं माना है। स्मृतियां तथा अन्य दार्शनिक मन को इन्द्रिय रूप में ही ग्रहण करते हैं। वैदिक साहित्य में इन्द्रियों की संख्या पांच हैं। स्मृति और सांख्य दर्शन में इन्द्रियाँ ग्यारह मानी गई हैं। हिन्दू न्याय दर्शन में पांच ज्ञानेन्द्रियां और एक मन को ही इन्द्रिय के रूप में स्वीकार किया गया है।
जैन दार्शनिकों का दृष्टिकोण हिन्दून्याय दर्शन द्वारा वर्णित दृष्टिकोण से कथंचित् समान है। वे मन को इन्द्रिय के रुप में मानते हैं पर अन्य इन्द्रियों एवं मन में अन्तर स्पष्ट करते हैं। क्योंकि मन को विशेष अनुपम गुण के फल स्वरूप मन, मनोबल, ईषद इन्दिय, अनिन्द्रिय, नोइन्द्रिय आदि संज्ञा से अभिहित करते हैं। मन में सभी वस्तुओं, कर्मों को ग्रहण करने की क्षमता है। जबकि इन्द्रियां किसी विशेष कार्य का ही संपादन करती हैं। अतः मन आत्मकल्याण के मार्ग में सापेक्ष होने पर भी निरपेक्ष है।
-गुरुकुल रोड, खुरई जिला सागर (म.प्र.)