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अनेकान्त 63/1, जनवरी-मार्च 2010
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नहीं है कि मन (अन्त:करण) इन्द्रिय है। आगे लेखक लिखता है "मनः षष्ठानीन्द्रियाणि प्रकृतिस्थानि कर्षति" (गीता 15/7) का उद्धरण देकर लिखता है मन के साथ छह होने में कोई विरोध नहीं होता मन को इन्द्रिय के अंग के रूप में नहीं समझा जाय।
कठोपनिषद में आता है कि "इन्द्रियेभ्यः परोह्यर्थः अर्थेभ्यश्च परं मनः"कर्म इन्द्रियों के अंगों के परे है मन इन्द्रिय से परे हैं। ऐसा लगता है कि वेदान्त परिभाषा का लेखक अन्त:करण को मन मानकर दूसरे रूप में मन को इन्द्रिय के रूप में मान लेता है। जबकि पाँच इन्द्रियों को बहिरिन्द्रिय तथा मन को आभ्यन्तर इन्द्रिय कहा गया है। __ वेद में पाते हैं "एतस्माद् जायते प्राणो मनः सर्वेन्द्रियाणि च" अर्थात् ईश्वर से प्राण, मन और सभी इन्द्रियों की उत्पत्ति हुई। इस प्रकार वेदों में सर्वत्र मन का सभी इन्द्रियों से भिन्न होने के उल्लेख मिलते हैं।
वेदान्त सूत्र और मन
शंकराचार्य ने वेदान्तसूत्र में लिखा है, "दशेमे पुरुषे प्राणा आत्मैकादशः आत्मशब्देनात्रान्त:करणं परिगृह्यते" अर्थात् पुरुष में दश इन्द्रियां और एक आत्मा जिसे अन्त:करण कहते हैं इस तरह ग्यारह प्राण हैं। इस प्रकार मन को इन्द्रियों से भिन्न ही किया है। वे आगे कहते हैं कि स्मृतियों में मन को इन्द्रिय ही माना है। "स्मृतीत्वेकादशेन्द्रियाणीति मनसोऽपीन्द्रियत्वम् श्रोत्रादिवत् संगृह्यते।" इस प्रकार पाँच ज्ञानेन्द्रिय तथा मन को मिलाकर ग्यारह इन्द्रियाँ प्राचीन मुनियों ने मानी हैं।
गीता और मन गीता में मन को इन्द्रिय के रूप में स्वीकार किया है वेदानां सामवेदोऽस्मि देवानामस्मि वासवः।
इन्द्रियाणां मनश्रावश्चस्मिभूतानामस्मि चेतना। अ.10-22 । इस प्रकार इन्द्रियों में मन की श्रेष्ठता स्वीकार की गई है।
इन्द्रियाणि स्वकीयानि वशे येन कृतानि वै।
जितं लोकत्रयं तेन किञ्चित्तस्य न दुर्लभम्। इसमें भी इन्द्रियों के साथ मन को भी वश में करने के संकेत स्पष्ट हैं। ३. सांख्यसूत्र और मन
सांख्यसूत्र में हम पाते हैं "उभयात्मक मनः" 2-26 अर्थात् मन दोनों प्रकार का होता है। ज्ञानेन्द्रिय रूप और कर्मेन्द्रिय रूप। सांख्यकारिका में यही विचार दृष्टिगोचर होता है।
उभयात्मकमत्रमनः संकल्पकमनिन्द्रियश्च साधात्। गुणपरिमाणमविशेषान्नानानात्वं बाह्य भेदतः। का-27
सांख्य मन को ग्यारहवीं इन्द्रिय मानता हैं। ग्यारह इन्द्रियों में मन नाम का इन्द्रिय तथा ज्ञानेन्द्रिय तथा कर्मेन्द्रिय दोनों स्वरूप है क्योंकि चक्षु आदि ज्ञानेन्द्रिय तथा वागादि कर्मेन्द्रिय दोनों की मन के आधार ही से अपने-अपने विषयों में प्रवृत्ति होती हैं। मन का लक्षण