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अनेकान्त 63/1, जनवरी-मार्च 2010 प्राण होते हैं। सभी प्रकार के जीवों में चेतना अर्थात् आत्मा एक अतिरिक्त प्राण के रूप में होता ही है। दस प्राण सहित को संज्ञी कहते हैं। संज्ञिनः समनस्काः - त.सू.अ.2सू.24
हित-अहित की परीक्षा तथा गुणदोष का विचार और स्मरणादि करने को संज्ञा कहते हैं। हिताहित में प्रवृत्ति मन की सहायता से ही होती है। इस प्रकार जैन दर्शन में मन का अति महत्त्व है। मन और इन्द्रियों के कारण होने वाले ज्ञान को मतिज्ञान माना गया है। तदिन्द्रियानिन्दियानिमित्तिम्- त.सू.अ.1सू.14
इस सूत्र में मन को अनिन्द्रिय कहा गया है। इस सूत्र की व्याख्या करते हुए पूज्यपाद आचार्य ने सर्वार्थसिद्धि ग्रंथ में अनिन्द्रिय को ईषदिन्द्रियानिन्दिअनिमित्तम कहा है। ___इस प्रकार जैन दर्शन में मनबल, अनिन्द्रिय, ईषदिन्द्रिय, समनस्क नोइन्द्रिय आदि शब्दों का प्रयोग कर मन के महत्त्व को स्वीकार किया गया है। आत्मकल्याण करने के लिये मन का होना अति आवश्यक है।
अब अन्य भारतीय दर्शनों में मन की स्थिति पर तुलनात्मक विवेचन करने का प्रयास
करेंगे।
वैदिक साहित्य में मन
वैदिक साहित्य में वर्णित प्रसंगों में मन को स्वीकार तो किया गया है पर इन्द्रिय के रूप में नहीं किया गया। जैसे
अथर्व वेद-काण्ड 21 में पाते हैं कि "इमानि यानि पञ्चेन्द्रियाणि मनः षष्ठानि मे हृदि ब्रह्मणा संश्लिष्टानि" अर्थात् ये पांच इन्द्रियां मन के साथ छह होकर ब्रह्मा के द्वारा हृदय में उड़ेली गई हैं। यहाँ पर मात्र पांच ही इद्रियों के होने का उल्लेख है। जब मन का इनसे योग होता है तब ये छ: हो जाती हैं। __बाद के दार्शनिकों ने मन को इन्द्रिय में प्रतिष्ठिापित करने में निम्नानुसार तर्क प्रस्तुत किये हैं - 'मन के साथ छह होने का अर्थ मन का इन्द्रिय होना ही हैं। मीमांसा दर्शन में वेदों के अनुवाद में सविस्तार अख्यान मिलता है जिसमें सापेक्ष कथन वर्णित हैं कि हम वेदों में "यजमान पंचमा इडां भक्षयन्ति" अर्थात् पांचों यज्ञ भाव सहित इडा (बुद्धि) का भक्षण करती हैं। यहां चार-चार प्रकार के ऋत्विक पुजारी है और पांचवां यजमान है अतः यह कभी नहीं कहा जा सकता कि "यजमान के साथ मिलकर पाँच" में यजमान भी एक (ऋत्विक्) वेद कराने वाला है। यजमान हमेशा पुजारी से भिन्न हैं। कल्पना की किसी भी सीमा में वह पुजारियों की कोटि में समाविष्ट नहीं किया जा सकता है।
इसी में एक उदाहरण उद्धृत किया जाता हैं "वेदानध्यापयामास महाभारत पंचमम्" अर्थात् उसने महाभारत के साथ मिलाकर पांच वेद सिखलाये। यह ज्ञात है कि महाभारत वेद नहीं है अतः "महाभारत को साथ मिलाकर पांच" कथन मात्र से महाभारत को कभी वेद नहीं कहा जा सकता है। अत: उपर्युक्त तर्क के द्वारा मन के साथ पाँच इन्द्रियां छह होने से मन को कभी इन्द्रिय नहीं समझना चाहिए।
वेदान्त परिभाषा में लिखा है, "न तावदन्त:करणमिन्द्रियमित्यत्र मनमस्ति" कोई प्रमाण