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मूक सेवक
प्रो० भागचन्द्र जैन
पुरातत्ववेत्ता और मूक समाज तथा देश-सेवक बाबू एन्टमेन्ट दूसरी जगह था। इसीलिए बाबूजी से फिर छोटेलाल जी के सन्दर्भ में पूज्य वर्णी जी का १९६१ का मिलने का वचन लेकर लोट पड़ा। लौटा तो लौटा ही। ईसरी चातुर्मास मेरे लिए पविस्मरणीय रहेगा। ग्राश्रम फिर दुबारा भेंट नहीं हो सकी। का सुहावना वातावरण शान्त और निस्तब्ध तपोवन जैसा यह भेट थी तो अल्पकालिक, परन्तु उसने मुझे काफी था । वीसवीं शती के महान प्राध्यात्मिक सन्त बाबाजी से प्रभावित किया । बाबू जी की निश्छल, निःस्वार्थ व कर्मठ प्रेरणा पाने के लिए पाश्रम एक प्रबल सम्बल बन गया कार्यशीलता उनके प्रत्येक शब्द से फूट रही थी। और मैं था। चारो ओर से धर्मप्रेमी बन्धु इस सुन्दर समागम के उसमें उनके द्वारा किए गये सामाजिक व देशिक कार्यों लिए खिचे हुए से चले आते थे। मैं भी यह मब देखने को स्मरण के माध्यम से झांक रहा था। निःसन्देह उन्होंसुनने का लोभ सवरण न कर सका । उन दिनों में स्या- ने तन-मन-धन से समाज व देश की मूक-सेवा की, वह द्वाद महाविद्यालय वाराणसी में था।
किसी भी स्थिति में भुलाई नही जा सकती। उनकी बाबूजी के नाम से परिचित होने की तो कोई बात प्रेरक और अनुकरणात्मक भावनाएँ तथा कार्य प्राज भी ही नही । परन्तु उनसे साक्षात्कार करने का प्रवसर ईसरी हमारे समक्ष वैसी ही स्थिति में मौन खड़े हैं और मे ही मिल पाया था। उनके पतले-छरहरे बदन पर धोती निमन्त्रण दे रहे हैं उन्हें समुचित ढंग से समझने का तथा कुर्ता तथा गौरवर्ण चेहरे पर कलकतिया टोपी बडी भली मागे बढाने का। लगती थी । इम वेष में इस महामना का प्रभावक और
इधर सीलोन (श्री लंका) से वापिस पाये हुए मुझे
कुछेक माह ही हुए थे। एक दिन नागपुर विश्वविद्यालय उदार-चिन्तक व्यक्तित्व स्पष्टत झलकता था और झलकता था उममे उनका समाज तथा धर्म की सेवा के ।
के पुस्तकालय मे अनेकान्त की एक प्रति हाथ में पा गई। प्रति कर्तव्यशीलता।
देखा तो उसमे बाबूजी को अभिनन्दन ग्रन्थ भेंट करने की
योजना का जिक्र था। साथ ही उनके सम्बन्ध में संस्मरणों मै देहली के प्रारकिलाजिकल स्कूल के विषय में जान- तथा जैनधर्म व दर्शन विषयक शोध निबन्धों का पाह्वान कारी प्राप्त करने के निमित्त बाबूजी से मिला था। इसी भी था। योजना पढ़कर तो अत्यन्त प्रसन्नता हुई, पर मन सिलमिले में बातचीत करते करते वे सामाजिक कर्तव्यों में उसी समय प्रतिक्रिया स्वरूप विचार पाया कि समाज की ओर इंगित करने लगे और कहने लगे कि हमारे नव- ने बाबूजी के स्वागत करने में इतनी देर क्यों की? प्रस्तु युवको को प्राचीनतम इस जैनधर्म का पुरातात्विक, मैंने योजना के सयोजक डा. कस्तूरचन्द जी कासलीवाल ऐतिहासिक और सांस्कृतिक अव्ययन कर-कराकर उसे को लिखा और पूछा कि इस योजना के लिए काफी समय विश्वधर्म के रूप में जनता के समक्ष उपस्थित करना निकल चुका है। क्या अभी भी कोई संस्मरण, लेखादि चाहिए । दोनो नई और पुरानी पीढ़ी को इस उद्देश्य- स्वीकार किया जा सकता है। चन्द दिनों बाद ही उनका प्राप्ति के लिए कन्धे से कन्धा मिलाकर तन-मन-धन से उत्तर मिला कि अभिनन्दनीय व्यक्तित्व का भौतिक शरीर काम करना होगा । त्याग किये बिना कुछ भी होने-जाने काल-कवलित हो गया, कुछ समय पूर्व ही। यह दुखद का नहीं।
समाचार जानकर मैं तो स्तब्ध-सा रह गया। लगा मानों बात कुछ देर तक चलती, परन्तु संयोगवशात् उसी समाज पर वजपात हो गया हो। है ही। काश ! समय उनके कुछ चिरपरिचित मित्र मा गये । मेरा भी 'यमस्य करुणा नास्ति' से वे बच निकलते ।