________________
उनके मानवीय गुण
प्रक्षय कुमार जैन
"
दुबले-पतले गेहुधा रंग, शुभ्र मलमल का कुर्ता, बारीक धोती, सिर पर काली टोपी और भांखों पर लगी ऐनक इस रूप का एक संभ्रान्त व्यक्ति माज से कोई १५ वर्ष पहले जब दिल्ली में हुई दिगम्बर जैन परिषद के कार्यकर्ताों की एक बैठक में प्राया तब साहू शान्ति प्रसादजी ने मुझसे परिचय कराते हुए कहा- "ये हैं बाबू छोटेलालजी, जिनके दिल में जैन वाङ्मय और जैन संस्कृति की धारा बहती है। पुरातत्व मे इनकी गहरी पैठ है। आप इनसे अब तक नहीं मिले हैं क्या ?"
-
नाम बाबू छोटेलालजी का अपने छुटपन से ही सुन रखा था। पिता जी के साथ समाज के सम्बन्ध मे उनका पत्र-व्यवहार होता था । उसे देखा था और पिताजी से उनके सम्बन्ध मे सुना भी। पर मेरे मन मे बाबू छोटे लाल जी का जो चित्र मा निश्चय ही यह इससे भिन्न था। मैं समझता था कि वे लम्बे-चौड़े, स्वस्थ पुरुष होगे । उनसे मिलकर एकाएक मुझे लगा "इतने विद्वान और यह वपु ।"
---
इसके बाद बाबूजी का दिल्ली में काफी प्राना-जाना और रहना हुधा "बीरसेवामन्दिर" तथा "अनेकान्त" के सम्बन्ध मे जब भी मिलना हुआ तो वे समाज के विभिन्न मुद्दों पर बात करते थे। दमे के मरीज होते हुए भी सामाजिक कार्यों में उनकी इतनी रुचि थी कि प स्वास्थ्य के मूल्य पर भी वे सेवा कार्य करते थे । समाज के श्रीमानों में उनका स्थान था और श्रीमानों में उनकी बड़ी प्रतिष्ठा भी थी ।
दिसम्बर, १९६१ का वह समय में कभी नहीं भूल सकता जबकि दिल्ली में ही मेरे पूज्य पिताजी का अकस्मात् देहान्त हो गया था। घर में सबसे बड़ा होने
के कारण मुझ पर उस यच प्रहार के बावजूद पर मे सबको धैर्य बँधाने का गुरुतर दायित्व श्रा पड़ा । उन दिनों घण्टों-घण्टों मेरे पास बैठकर बाबू छोटेलाल जी ढाढ़स दिया करते और नैतिक साहस बँधाते । बाबूजी को विचारपूर्ण बातों से मुझे सम्बल मिला और मैं अपना कर्तव्य निभाने में सफल हुआ। अत्यन्त निकट ग्रात्मीय की तरह दमे के रोगी होते हुए भी तीन मजिले मकान पर चढकर प्राते और काफी समय बैठे रहते । घर में सब लोगों को साग्रह भोजन यादि कराना तो उन्होने अपना कर्तव्य ही मान लिया था। सकट का हमारा वह समय उनकी सान्त्वना से निकल गया ।
इसके बाद भी जब-जब उनसे मिलना हुम्रा बुजुर्ग जैसी सलाह, मित्र जैसा परामर्श और भाई जैसा स्नेह ही प्राप्त होता रहा । हम लोग इस यत्न मे थ कि उनके सम्मान में एक अभिनन्दन ग्रन्थ सग्रह किया जाय किन्तु अब ऐसा लगता है कि अभिनन्दन ग्रथ "स्मृति ग्रथ" ही हो सकेगा ।
बाबु छोटेलालजी साहित्य धौर संस्कृति के किसने बडे ममेश मे यह बहुत कम लोग जानते होगे । यदि उन्होंने स्वयं साहित्य सृजन किया होता तो ग्राम देश के श्रेष्ठ साहित्यकारो मे उनका स्थान होता। दूसरे को आगे बढाना धौर वड़ों जैसा ग्राशीर्वाद का हाथ सदैव कधे पर रखना उनका स्वभाव था ।
वह अपने समाज मे ही नहीं अपितु भारतीय समाज में समादृत हुए और उनके मानवीय गुण वर्षों तक याद किये जाते रहेंगे। उनकी काया माज भले ही न हो किन्तु मानस पटल पर उनकी छाया अनन्त काल तक स्थापित रहेगी, यही मेरी बिनम्र बढांजलि है। श्रद्धांजलि