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अनेकान्त
तिक, वीर-निर्वाण सं० २४६५
अनित्यता
[ले. श्री. शोभाचन्द्र भारिल्ल, न्यायतीर्थ ]
दहला देता था वीरों को जिनका एक इशारा, जिनकी उँगली पर नचता था यह भमंडल सारा। थे कल तक जो शूरवीर रणधीर अभय सेनानी, पड़े तड़पते आज न पाते हैं चुल्लू-भर पानी !
लहरें लोल जलधि है अपनी आज जहाँ लहराता, हा! संसार मरुस्थल उसको थोड़े दिन में पाता ! मनहर कानन में सौरभ-मय सुंदर सुमन खिले है, आँधी के हलके झोंके से अब वे धूल मिले हैं !
अमर मानकर निज जीवनको पर-भव हाय भुलाया, चाँदी-सोने के टुकड़ों में फूला नहीं समाया । देख मूढता यह मानव की उधर काल मुस्काया, अगले पल ले चला यहाँपर नाम-निशान न पाया !
है संसार सराय जहाँ हैं पथिक आय जुट जाते, लेकर दुक विश्राम राह को अपनी-अपनी जाते । जो आये थे गये सभी, जो आये हैं जाएँगे, अपने-अपने कर्मों का फल सभी आप पाएँगे ।।
उच्छासों के मिप से प्रतिपल प्राण भागते जाते, बादल की-सी छाया काया पाकर क्या इठलाते ? कौन सदा रख सका इन्हें फिर क्या तू ही रख लेगा ? पा यम का संकेत तनिक-सा तु प्रस्थान करेगा ?
जीवन तन धन-भवन न रहि है, स्वजन-प्रान छूटेंगे, दुनिया के संबंध विदाई की वेला टेंगे । यह क्रम चलता रहा आदि से, अब भी चलता भाई. संयोगों का एकमात्र फल--केवल सदा जुदाई ।।
विजली की क्षण-भगुर आभा कहती-देखो आओ, तेरे-मेरे जीवन में है कितना भेद बतायो ? जल-बुद-बुद मानों दुनियां को अमर सीख देता हैमौत तभी मे ताक रही जब जीव जन्म लेता है।
कोटि-कोटि कर कोट ओटमें उनकी तू छिप जाना. पद-पद पर प्रहरी नियुक्त करके पहरा बिठलाना। रक्षण हेतु मदा हो सेन सजी हुई चतुरङ्गी, काल बली ले जाएगा, ताकंगे साथी-सङ्गी ।।
बड़ भोर चह अरो ललाई जो भ पर छाई थी. नभ से उतर प्रभा दिनकर की मध्य दिवस आई थी। सन्ध्या-राग रंगीला मन को तुरत माहने वाला, हाय ! कहाँ अब जब फैला है यह भीषण तम काला!
| धन-दौलत का कहा ठिकाना, वह कब तक ठहरगी ?
चारु सुयश की विमल पताका क्या सदैव फहरेगी? पिता-पुत्र-पत्नी-पोतों का संग चार दिन का है. फिर चिर-काल वियोग-वेदना-वेदन फल इनका है ।।
जीवन का सौंदर्य सुनहरा शैशव कहा गया रे ! आंधी-सा मतमाता यौवन भी तो चला गया रे ! श्रद्ध मृत्युमय बूढ़ापन भी जाने को आया है. हा! मारा ही जीवन जैसे बादल की छाया है !!