________________ को विस्मृत कर इस प्रकार की प्रवृत्तियां करेगा तो उसकी साधना में विध्न आयेंगे। यहां पर करुणाभाव या अनुकम्पाभाव का प्रायश्चित्त नहीं है अपितु गृहस्थों की सेवा और संयम विरुद्ध प्रवृत्ति का प्रायश्चित्त है। __ जो श्रमण पुनः पुनः प्रत्याख्यान भंग करता है और करने वाले का अनुमोदन करता है उसे लघु चातुसिक प्रायश्चित्त आता है। भाष्य में प्रत्याख्यान भंग करने से अनेक दोष पैदा होते हैं। लोम युक्त चर्म रखने का निषेध है। गहस्थ के वस्त्राच्छादित तृणपीठ आदि पर बैठने का निषेध है। साध्वी की चादर अन्यतीथिक या किसी गृहस्थ से सिलवाने का निषेध है। पृथ्वीकाय आदि पांचों स्थाबरों के जीवों की किञ्चित भी विराधना करने का निषेध है। सचित्त वृक्ष पर चढ़ने का निषेध है। गृहस्थ के पात्र में भोजन करने का निषेध है / गृहस्थ का वस्त्र पहनना और उसकी शैय्या पर सोने का निषेध है। वापी, सर, निर्भर, पुष्करिणी आदि का सौन्दर्यस्थल निरीक्षण करने का निषेध है। सुन्दर ग्राम, नगर, पट्टन प्रादि को देखने की अभिलाषा रखने का निषेध है। अश्वयुद्ध, हस्तियुद्ध प्रादि में सम्मिलित होने का निषेध है। काष्ठकर्म, चित्रकर्म, लेपकर्म, दन्तकर्म आदि देखने का निषेध है। प्रथम प्रहर में ग्रहण किया हुआ आहार-पानी का उपयोग चतुर्थ प्रहर में करने का निषेध है। दो कोस के आगे आहार-पानी ले जाने का निषेध है / गोबर या अन्य लेप्य पदार्थ रात्रि में लगाना या रात्रि में रखकर दिन में लगाने का निषेध है। गंगा, यमुना, सरयू, ऐरावती और मही नाम की बड़ी नदियों को महीने में दो या तीन बार पार करने का निषेध है / इन निषेध प्रवृत्तियों को करने पर लघुचौमासी प्रायश्चित्त का उल्लेख है / / प्रस्तुत उद्देशक में जिन बातों का निषेध किया गया है उनका निषेध दशाश्रुतस्कन्ध आचारांग बृहत्कल्प दशवकालिका सूत्रकृतांग प्रभति आगमों में मिलता है। साधक को इस प्रकार की प्रवृत्तियाँ नहीं करनी चाहिए जो उसकी साधना को धूमिल करने वाली हों। तेरहवां उद्देशक तेरहवें उद्देशक में 78 सूत्र हैं। जिन पर 4226-4472 गाथाओं का विस्तृत भाष्य है / सचित्त, सस्निग्ध, सरजस्क आदि पृथ्वी पर सोने, बैठने व स्वाध्याय' करने का, देहली, स्नानपीठ, भित्ति, शिला आदि पर बैठने का, अन्यतीथिक या महस्थ आदि को शिल्प आदि सिखाने का, कौतुककर्म, भूतिकर्म, प्रश्न, प्रश्नादि प्रश्न, निमित्त, लक्षण आदि के प्रयोग करने का, गृहस्थ को मार्गभ्रष्ट होने पर रास्ता बताने का, धातुविद्या या निधि बताने का, पानी से भरे हुए पात्र, दर्पण, मणि, तेल, मधु, घृत प्रादि में मुंह देखने का, वमन, विरेचन तथा वल आदि के लिए व बुद्धि के लिए औषध आदि सेवन का, पार्श्वस्थ प्रादि शिथिलाचारियों को वन्दन करने का तथा उत्पादन के दोषों का सेवन कर आहार ग्रहण करने का निषेध है, इत्यादि प्रवृत्तियाँ करने वाले साधक को लघचौमासी प्रायश्चित्त आता है। तेरहवें उद्देशक में जिन-जिन निषेधों की चर्चा की है उनमें से कुछ बातों पर आचारांग सूत्रकृतांग दशवकालिक उत्तराध्ययन प्रादि में भी निषेध है। पिण्डनियुक्ति में उत्पादन दोष आदि पर विस्तार से विवेचन है। सारांश यही है कि साधक प्रतिपल प्रतिक्षण जागरूक रहे / दोषयुक्त कोई भी प्रवृत्ति न करे। चौदहवां उद्देशक चौदहवें उद्देशक में 41 सूत्र हैं। किन्हीं-किन्हीं प्रतियों में 45 सूत्र भी मिलते हैं / जिन पर 4473-4689 गाथाओं का विस्तृत भाष्य है। यहां पर पात्र को खरीदने, उधार लेने, पात्र परिवर्तन करने, छीन करके पात्र लेना। पात्र के हिस्सेदार की आज्ञा लिये बिना पात्र लेना। सामने लाया हआ पात्र लेना / आचार्य की आज्ञा लिये बिना ( 52 ) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org