________________ 184] [निशीथसूत्र 8. अटवी के यात्रियों के निमित्त बना भोजन, 9. दुभिक्ष-पीड़ितों के लिए दिया जाने वाला भोजन, 10. दुष्काल-पीड़ितों के लिए दिया जाने वाला भोजन, 11. दीन जनों के निमित्त बना भोजन, 12. रोगियों के निमित्त बना भोजन, 13. वर्षा से पीड़ित जनों के निमित्त बना भोजन, 14. आगंतुकों के निमित्त बना भोजन ग्रहण करता है या ग्रहण करने वाले का अनुमोदन करता है / (उसे गुरुचौमासी प्रायश्चित्त पाता है / ) विवेचन–अनेक राजकुलों में या अनेक श्रीमन्त कुलों में प्रतिदिन उक्त प्रकार का भोजन देने की एक प्रकार की मर्यादा होती है। उनमें से किसी प्रकार का भोजन साधु ग्रहण करे तो जिनके निमित्त भोजन बनाया है, उनके अंतराय लगती है अथवा दूसरी बार भोजन बनाने की प्रारम्भजा क्रिया लगती है तथा राजपिड ग्रहण संबंधी दोष भी लगता है। विशेष शब्दों की व्याख्या१. दुवारिय-भत्तं-दोवारिया-दारपाला--नगर के द्वारपाल / 2. बलं--चउब्विहं-पाइक्कबलं, आसबलं, हथिबलं, रहबलं / 3. कंतार---अडविनिग्गयाण-भुखत्ताणं / 4. दुग्भिक्ख–जं दुभिक्खे राया देति तं दुभिक्खभत्ता / 5. दमग दमगा-रंका, तेसि भत्तं-दमगभत्तं / 6. बद्दलिया-सत्ताह (सात दिन) बद्दले पडते भत्तं करेइ राया---अतिवृष्टि से पीड़ितों का भोजन / चूर्णिकार ने कुछ शब्दों की व्याख्या की है, मूल पाठ में कहीं 11, 13 व 14, शब्द भी मिलते हैं / निर्णय करने का पर्याप्त प्राधार उपलब्ध न होने से मूल में 14 शब्द ही लिये गये राजा के कोठार प्रादि स्थानों को जाने बिना भिक्षागमन का प्रायश्चित्त 7. जे भिक्खू रण्णो खत्तियाणं मुदियाणं मुद्धाभिसित्ताणं इमाइं छद्दोसाययणाई अजाणियअपुच्छिय-अगवेसिय परं चउराय-पंचरायाओ गाहावइकुलं पिंडवायपडियाए णिवखमइ वा पविसइ वा णिक्खमंतं वा पविसंतं वा साइज्जइ. तं जहा-१. कोडागार-सालाणि वा, 2. भंडागार-सालागि वा, 3. पाण-सालाणि वा, 4, खीर-सालाणि वा, 5. गंज-सालाणि वा, 6. महाणस-सालाणि वा। 7. जो भिक्षु शुद्धवंशज मूर्द्धाभिषिक्त क्षत्रिय राजा के इन छह दोषस्थानों को 4-5 दिन के भीतर जानकारी किए बिना, पूछताछ किए बिना व गवेषणा किए बिना गाथापति कुलों में प्राहार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org