________________ तेरहवां उद्देशक] [309 45 बिना रोग के चिकित्सा करने का प्रायश्चित्त / / 46-63 पार्श्वस्थ आदि को वन्दना करने का तथा उनकी प्रशंसा करने का प्रायश्चित्त / 64-78 धातृ-पिंड आदि भोगने का प्रायश्चित्त / संक्षिप्त में उत्पादन दोष रहित आहार ग्रहण करने का कथन आव. अ. 4 तथा प्रश्न. श्रु. 2, अ. 1 में है। किन्तु वहां अलग-अलग नाम एवं संख्या नहीं कही गई है / पिडनियुक्ति में इनका नाम एवं दृष्टान्तयुक्त विस्तृत विवेचन है / इसी तरह पार्श्वस्थ प्रादि के साथ परिचय करने का निषेध सूय. श्रु. 1. अ. 9 तथा प्र. 10 में है किन्तु वन्दन एवं प्रशंसा का स्पष्ट निषेध नहीं है / // तेरहवां उद्देशक समाप्त / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org