________________ 312] [निशीथसूत्र 1. मन से अच्छा समझना 2. वचन से अच्छा कहना 3. काया से उसे स्वीकार करना अर्थात् उपयोग में लेना। अतः भिक्ष के लिये बनाये गये या खरीदे गये पदार्थ यदि वह नहीं ले तो उसे किसी प्रकार का दोष नहीं लगता है / यदि वह ग्रहण करके उसका उपयोग करे तो कायिक अनुमोदन का दोष लगता है। आचा. श्रु. 2, अ. 6 में साधु के लिये खरीदे गये पात्र को साधु के न लेने पर यदि गृहस्थ अपने उपयोग में ले लेता है तो कालान्तर में फिर कभी वही भिक्षु उस पात्र को ग्रहण कर सकता है / क्योंकि वह पात्र "पुरुषान्तरकृत" हो गया है / प्राचा. श्रु. 2, अ. 1, उ. 1 के अनुसार इस तरह पुरुषान्तरकृत बना हुअा अाहार-पानी ग्रहण नहीं किया जा सकता। उत्तरा. अ. 20, गा. 47 में औद्देशिक, क्रीत आदि दोषों का सेवन करने वाले भिक्षु को अग्नि की उपमा देते हुए सर्वभक्षी कहा है। अतः साधु को खरीदने की प्रवृत्ति नहीं करनी चाहिये तथा साधु के निमित्त खरीदे गये पदार्थ भी उसे ग्रहण नहीं करने चाहिये। - प्रामृत्य-साधु किसी से पात्र उधार लाए, बाद में उसका मूल्य गृहस्थ दे तो इस प्रकार की प्रवृत्ति भी भिक्षु को नहीं करनी चाहिये / ऐसा करने से अनेक दोषों की परम्परा बढ़ती है तथा कभी धर्म की अवहेलना भी हो सकती है। यदि कोई गृहस्थ भिक्षु के लिये पात्र आदि उधार लाकर दे तो भी ग्रहण करना नहीं कल्पता है। यह भी एषणा का दोष है / यदि उधार लाने वाला गृहस्थ परिस्थितिवश मूल्य नहीं चुका सकेगा तो वह महाऋणी भी बन सकता है, अत: ऐसा दोषयुक्त पात्र भिक्षु के लिये अग्राह्य है। परितित-अपना पात्र देकर बदले में दूसरा पात्र गहस्थ से लेना यह परिवर्तन करना कहलाता है / ऐसा स्वयं करना तथा कराना साधु को नहीं कल्पता है तथा गृहस्थ भी अन्य गृहस्थ से इस प्रकार पात्र परिवर्तन करके साधु को दे तो ऐसा पात्र लेना भी दोषयुक्त है। ऐसा करने पर उस परिवार के स्वजन-परिजन नाराज हो सकते हैं। साधु द्वारा गृहस्थ को दिया गया पात्र यदि घर ले जाने पर फूट जाए तो उसे आशंका हो सकती है कि 'मुझे फूटा पात्र दे दिया होगा।' उस पात्र में आहारादि का सेवन करने से यदि कोई बीमार हो जाए या मर जाए तो भ्रान्ति से साधु के प्रति द्वेष भाव हो सकता है, जिससे अन्य अनेक अनर्थों के होने की सम्भावना रहती है। अतः भिक्षु स्वयं गृहस्थ से पात्र का परिवर्तन न करे तथा कोई श्रद्धालु गृहस्थ इस प्रकार पात्र परिवर्तन करके दे तो भी साधु ग्रहण न करे / प्राचा. श्रु. 2, अ. 5 तथा 6, उ. 2 में कहा गया है कि 'भिक्षु अन्य भिक्षु के साथ भी इस प्रकार पात्रादि का परिवर्तन न करे।' आछिन्न-यदि कोई बलवान् व्यक्ति सत्ता के प्रभाव से किसी निर्बल व्यक्ति पर दबाव डालकर उससे पात्र को छीनकर ले और वह पात्र साधु को दे अथवा उससे ही दिलवावे तो वह Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org