Book Title: Agam 24 Chhed 01 Nishith Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti

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Page 490
________________ 39.] [निशोथसूत्र 140-154. जो भिक्षु खेत यावत् भवनगृहों के शब्द सुनने के संकल्प से जाता है या जाने ले का अनुमोदन करता है इत्यादि १२वें उद्देशक के समान यहाँ भी सभी सूत्र, 'शब्दश्रवण के आलापक' से जानना यावत् जो भिक्षु अनेक बैलगाड़ियों के यावत् अन्य अनेक प्रकार के महाप्राश्रव वाले स्थानों में शब्द सुनने के संकल्प से जाता है या जाने वाले का अनुमोदन करता है / 155. जो भिक्षु 1. इहलौकिक शब्दों में, 2. पारलौकिक शब्दों में, 3. दृष्ट शब्दों में, 4. अदृष्ट शब्दों में, 5. पूर्व सुने हुए शब्दों में, 6. अश्रुत शब्दों में, 7. ज्ञात शब्दों में, 8. अज्ञात शब्दों में प्रासक्त, अनुरक्त, गृद्ध और अत्यधिक गृद्ध होता है या आसक्त, अनुरक्त, गृद्ध और अत्यधिक गृद्ध होने वाले का अनुमोदन करता है। इन 155 सूत्रों में कहे गये स्थानों का सेवन करने पर लघुचौमासी प्रायश्चित्त आता है। विवेचन-इन 16 सूत्रों का संपूर्ण विवेचन १२वें उद्देशक के अनुसार जानना चाहिए, चूर्णिकार ने भी यही सूचन किया है / सत्रहवें उद्देशक का सारांशसूत्र 1-2 कुतूहल से त्रस प्राणी को बांधना, खोलना / 3-14 कुतूहल से मालाएं, कड़े, प्राभूषण और वस्त्रादि बनाना, रखना और पहनना। 15-68 साध्वी, साधु का शरीरपरिकर्म गृहस्थ द्वारा करवाये / 69-122 साधु, साध्वी का शरीरपरिकर्म गृहस्थ द्वारा करवावे / 123-124 सदृश निर्ग्रन्थ निर्ग्रन्थी को स्थान नहीं देना / 125-127 अधिक ऊँचे-नीचे स्थान में से या बड़े कोठे में से आहार लेना अथवा लेप आदि से बंद बर्तन खुलवाकर आहार लेना। 128-131 सचित्त पृथ्वी आदि पर रखा हुआ ग्राहार लेना। 132 पंखे आदि से ठंडा करके दिया गया आहार लेना। 133 तत्काल बना हुआ अचित्त शीतल जल (धोवण) लेना। अपने प्राचार्यपद योग्य शारीरिक लक्षण कहना। 135 गाना, बजाना, हँसना, नृत्य करना नाटक करना, हाथी, घोड़े, सिंह आदि जानवरों के जैसे पावाज करना। 136-139 वितत, तत, घन और झुसिर वाद्यों की ध्वनि सुनने जाना / 140-155 अन्य अनेक स्थलों के शब्द सुनने के लिए जाना / शब्दों में आसक्ति रखना इत्यादि प्रवृत्तियां करने पर लघुचौमासी प्रायश्चित्त पाता है। इस उद्देशक के 29 सूत्रों के विषयों का कथन निम्नांकित आगमों में है, यथा-- 125-127 मालोपहृत, कोठे में रखा और मट्टियोपलिप्त आहार लेने का निषेध / -- प्राचा. श्रु. 2, अ. 1, उ. 7 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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