________________ 428] [निशीथसूत्र 29. जे भिक्खू ओसण्णस्स वायणं पडिच्छइ, पडिच्छतं वा साइज्जइ / 30. जे भिक्खू कसीलस्स वायणं देइ, देंतं वा साइज्जइ / 31. जे भिक्खू कुसीलस्स वायणं पडिच्छइ, पडिच्छंत वा साइज्जइ / 32. जे भिक्खू संसत्तस्स वायणं देइ, देतं वा साइज्जइ। 33. जे भिक्खू संसत्तस्स वायणं पडिच्छइ, पडिच्छंतं वा साइज्जा / 34. जे भिक्खू णितियस्स वायणं देइ, देंतं वा साइज्जइ / 35. जे भिक्खू णितियस्स वायणं पडिच्छइ, पडिच्छंतं वा साइज्जइ / तं सेवमाणे आवज्जइ चाउम्भासियं परिहारद्वाणं उग्घाइयं / 26. जो भिक्षु पार्श्वस्थ को वाचना देता है या देने वाले का अनुमोदन करता है। 27. जो भिक्षु पार्श्वस्थ से वाचना लेता है या लेने वाले का अनुमोदन करता है। 28. जो भिक्षु अवसन्न को वाचना देता है या देने वाले का अनुमोदन करता है। 29. जो भिक्षु अवसन से वाचना लेता है या लेने वाले का अनुमोदन करता है। 30. जो भिक्षु कुशील को वाचना देता है या देने वाले का अनुमोदन करता है / 31. जो भिक्षु कुशील से वाचना लेता है या लेने वाले का अनुमोदन करता है। 32. जो भिक्षु संसक्त को वाचना देता है या देने वाले का अनुमोदन करता है / 33. जो भिक्षु संसक्त से वाचना लेता है या लेने वाले का अनुमोदन करता है। 34. जो भिक्षु नित्यक को वाचना देता है या देने वाले का अनुमोदन करता है / 35. जो भिक्षु नित्यक से वाचना लेता है या लेने वाले अनुमोदन करता है / इन 35 सूत्रों में वर्णित दोष स्थानों का सेवन करने पर लघुचौमासी प्रायश्चित्त प्राता है / विवेचन-जिस प्रकार मिथ्यात्वी गहस्थ से वाचना लेन-देने में दोषों की सम्भावना पूर्व सूत्र में कही है उसी प्रकार पार्श्वस्थ आदि के साथ भी समझना चाहिए किन्तु यहां मिथ्यात्व के स्थान पर शिथिलाचार का पोषण एवं प्ररूपण करने सम्बन्धी दोष समझने चाहिए / पूर्व उद्देशों में भी इनके साथ वन्दन, आहार, शय्या आदि के सम्पर्क करने सम्बन्धी प्रायश्चित्त कहे हैं / अतः विशेष विवेचन एवं दोषों का वर्णन उद्देशक 4, 10 तथा 13 से जान लेना चाहिए / यदि कभी कोई गीतार्थ मुनि पार्श्वस्थ आदि को संयम में उन्नत होने की सम्भावना से वाचना दे तो प्रायश्चित्त नहीं समझना चाहिए। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org