________________ 438] [निशीथसूत्र 3. तदुभय योग्य-तप प्रायश्चित्त के अयोग्य समिति प्रादि के अत्यन्त अल्प दोष की शुद्धि पालोचना एवं प्रतिक्रमण से हो जाती है। 4. विवेक योग्य-भूल से ग्रहण किये गए दोषयुक्त या अकल्पनीय आहारादि के ग्रहण किये जाने पर अथवा क्षेत्रकाल सम्बन्धी प्राहार की मर्यादा का उल्लंघन होने पर उसे परठ देना ही विवेक प्रायश्चित्त है। 5. व्युत्सर्ग के योग्य -किसी साधारण भूल के हो जाने पर निर्धारित श्वासोच्छ्वास के कायोत्सर्ग का प्रायश्चित्त दिया जाय यह व्युत्सर्ग प्रायश्चित्त है। उभय काल प्रतिक्रमण में पांचवाँ आवश्यक भी इसी प्रायश्चित्त रूप है / ये पांचों प्रायश्चित्त तपरहित हैं / 6. तप के योग्य-मूल गुण या उत्तर गुण में दोष लगाने पर पुरिमड्ड से लेकर 6 मासो तप तक का प्रायश्चित्त होता है / यह दो प्रकार का है१. शुद्ध तप, 2. परिहार तप / 7. छेद के योग्य-दोषों के बार-बार सेवन से, अकारण अपवाद सेवन से या अधिक लोक निंदा होने पर आलोचना करने वाले की एक दिन से लेकर छः मास तक की दीक्षा-पर्याय का छेदन करना / 8. मूल के योग्य-छेद के योग्य दोषों में उपेक्षा भाव या स्वच्छन्दता होने पर पूर्ण दीक्षा छेद करके नई दीक्षा देना। 9-10. अनवस्थाप्य पारांचिक प्रायश्चित्त-वर्तमान में इन दो प्रायश्चित्तों का विच्छेद होना माना जाता है। नई दीक्षा देने के पूर्व कठोर तपमय साधना करवाई जाती है, कुछ समय समूह से अलग रखा जाता है फिर एक बार गृहस्थ का वेष पहनाकर पुनः दीक्षा दी जाती है इन दोनों में विशिष्ट तप एवं उसके काल आदि का अन्तर है और इनका अन्य विवेचन बृहत्कल्प उद्देशक 4 में तथा व्यव. उ. 2 में देखें / इन सूत्रों में लघुमासिक आदि तप प्रायश्चित्तों का कथन है। भाष्य गाथा 6499 में कहा है कि 19 उद्देशकों में कहे गये प्रायश्चित्त ज्ञानदर्शन चारित्र के अतिक्रम व्यतिक्रम अतिचार एवं अनाचार के हैं। इनमें से स्थविरकल्पी को किसी अनाचार का आचरण करने पर ही ये प्रायश्चित्त आते हैं और जिनकल्पी को अतिक्रम प्रादि चारों के ये प्रायश्चित्त पाते हैं। 1. अतिक्रम-दोष सेवन का संकल्प / 2. व्यतिक्रम—दोष सेवन के पूर्व की तैयारी का प्रारम्भ / 3. अतिचार-दोष सेवन के पूर्व की प्रवृत्ति का लगभग पूर्ण हो जाना। 4. अनाचार-दोष का सेवन कर लेना / जैसे कि-१. प्राधाकर्मी आहार ग्रहण करने का संकल्प, 2. उसके लिये जाना, 3. लाकर रखना, 4. खा लेना। स्थविरकल्पी को अतिक्रमादि तीन से व्युत्सर्ग तक के पांच प्रायश्चित्त पाते हैं एवं अनाचार सेवन करने पर उन्हें आगे के पांच प्रायश्चित्तों में से कोई एक प्रायश्चित्त पाता है / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org