________________ 416] [निशीयसूत्र 6. यूपक-शुक्ल पक्ष की एकम, बीज और तीज के दिन सूर्यास्त होने एवं चन्द्र अस्त होने के समय की मिश्र अवस्था को यूपक कहा जाता है। इन दिनों के प्रथम प्रहर में अस्वाध्याय होता है। इसे बालचन्द्र का अस्वाध्याय भी कहा जाता है। 7. यक्षादीप्त-आकाश में प्रकाशमान पुद्गलों की अनेक प्राकृतियों का दृष्टिगोचर होना / इसका एक प्रहर का अस्वाध्याय होता है। 8. धुमिका-अंधकारयुक्त धुअर का गिरना / यह जब तक रहे तब तक इसका अस्वाध्यायकाल रहता है। 9. महिका-अंधकार रहित सामान्य धूअर का गिरना / यह जब तक रहे तब तक इसका भी अस्वाध्याय रहता है। इन दोनों अस्वाध्यायों के समय अप्काय की विराधना से बचने के लिए प्रतिलेखन आदि कायिक-वाचिक कार्य भी नहीं किए जाते / इनके होने का समय कार्तिक, मार्गशीर्ष, पौष और माघ मास है / अर्थात् इन गर्भमासों में कभी-कभी, कहीं-कहीं धुअर या महिका गिरती है। किसो वर्ष किसी क्षेत्र में नहीं भी गिरती है। पर्वतीय क्षेत्रों में बादलों के गमनागमन करते रहने के समय भी ऐसा दृश्य होता है। किन्तु उनका स्वभाव धुअर से भिन्न होता है अतः उनका अस्वाध्याय नहीं होता है। 10. रज-उद्घात-आकाश में धूल का आच्छादित होना और रज का गिरना / यह जब तक रहे तब तक अस्वाध्याय होता है। भाष्य में बताया है कि तीन दिन सचित्त रज गिरती रहे तो उसके बाद स्वाध्याय के सिवाय प्रतिलेखन आदि भी नहीं करना चाहिए क्योंकि सर्वत्र सचित्त रज व्याप्त हो जाती है / ये दस आकाश सम्बन्धी अस्वाध्याय है। 11.-12.-13. हड्डी-मांस-खून-तिर्यंच की हड्डी या मांस 60 हाथ और मनुष्य की 100 हाथ के भीतर दृष्टिगत हो तो अस्वाध्याय होता है / हड्डियां जली हुई या धुली हुई हो तो उसका अस्वाध्याय नहीं होता है। अन्यथा उसका 12 वर्ष तक अस्वाध्याय होता है। इसी तरह दांत के लिए भी समझना चाहिए। खन जहाँ दृष्टिगोचर हो या गंध नावे तो उसका अस्वाध्याय होता है अन्यथा अस्वाध्याय नहीं होता है / अर्थात् 60 हाथ या 100 हाथ की मर्यादा इसके लिए नहीं है / तिर्यंच पंचेन्द्रिय के खून का तीन प्रहर और मनुष्य के खून का अहोरात्र तक अस्वाध्याय होता है / उपाश्रय के निकट के गृह में लड़की उत्पन्न हो तो आठ दिन और लड़का हो तो 7 दिन अस्वाध्याय रहता है। इसमें दीवाल से संलग्न सात घर की मर्यादा मानी जाती है / तिर्यच सम्बन्धी प्रसूति हो तो जरा गिरने के बाद तीन प्रहर तक अस्वाध्याय समझना चाहिए। 14. अशुचि-मनुष्य का मल जब तक सामने दीखता हो या गंध पाती हो तब तक वहाँ अस्वाध्याय समझना चाहिए / तिर्यंच के मल की दुर्गंध आती हो तो अस्वाध्याय होता है, अन्यथा नहीं। मनुष्य के मूत्र की जहाँ दुर्गंध आती हो ऐसे मूत्रालय आदि के निकट अस्वाध्याय होता है। जहाँ पर नगर की नालियां-गटर आदि की दुर्गंध आती हो वहाँ भी अस्वाध्याय होता है। अन्य कोई भी मनुष्य तिर्यच के शारीरिक पुद्गलों की दुर्गध पाती हो तो उसका भी अस्वाध्याय समझना चाहिए। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org