________________ अठारहवां उद्देशक] ठाणागं सूत्र अ. 5 में वर्षाकाल में विहार करने के कुछ कारण कहे हैं, उन कारणों से विहार करने पर कभी नौका द्वारा नदी आदि पार करना पड़े तो वह भी सकारण नौकाविहार है, अतः उसका सूत्रोक्त प्रायश्चित्त नहीं आता है। नावा देखने के लिये या नौकाविहार को इच्छापूर्ति के लिये, ग्रामानुग्राम विचरण करने के लिए या तीर्थस्थानों में भ्रमण करने हेतु अथवा अकारण या सामान्य कारण से नावा में बैठना निष्प्रयोजन बैठना कहा जाता है, उसी का इस प्रथम सूत्र में प्रायश्चित्त कहा गया है। 2-5. प्रागाढ (प्रबल) कारण से नौकाविहार करना पड़े तो भी सूत्रोक्त क्रीतादि दोष से युक्त नौका में जाना नहीं कल्पता है अर्थात् नाविक अपनी भावना से ले जावे, किराया नहीं लेवे तो प्रायश्चित्त नहीं पाता है / क्रोतादि दोष लगने पर सूत्रोक्त प्रायश्चित्त पाता है / 6-9. साधु के लिये नौका को किनारे से जल में ले जावे या जल से स्थल में लावे, कीचड़ में से निकाले, नावा में से जल को निकालकर साफ करे, ऐसी नावा में जाने पर सूत्रोक्त प्रायश्चित्त आता है अर्थात् अन्य यात्रियों के लिये पूर्व में सब तैयारी हो जाय, वैसी नावा में जाने पर सूत्रोक्त प्रायश्चित्त नहीं आता है। 10. यदि पार जाने वाली नौका बड़ी हो और वह किनारे से बहुत दूर हो तो वहाँ तक पहुँचने के लिये स्वयं के लिये ही दूसरी छोटी (प्रतिनावा) नौका आदि साधन करके जाए तो भी प्रायश्चित्त पाता है, अर्थात जो नौका किनारे के निकट है और प्राचा० श्र 2, अ०३, उ०१ में कही विधि से पैदल चलकर पहुंच सकता है, ऐसी नावा में जाने पर सूत्रोक्त प्रायश्चित्त नहीं आता है / 11. जो नौका प्रवाह में या प्रवाह के सन्मुख जाने वाली हो उसमें जाना नहीं कल्पता है, किन्तु जो नदी के विस्तार को काटकर सामने तीर पर जाने वाली हो, उसी नौका में जाना कल्पता है / प्राचा० श्रु० 2, अ० 3, उ० 1 में भी उक्त नौका में जाने का निषेध है और यहाँ उसी का प्रायश्चित्त कहा है। 12. नदी का विस्तार कम होते हुए भी पानी के प्रवाह का वेग तीव्र होने से यदि नौका को तिरछा लम्बा मार्ग तय करना पड़े, जिससे नौका प्राधा योजन से अधिक या एक योजन से भी अधिक चले तो वैसी नावा में और वैसे समय में जाना नहीं कल्पता है / जाने पर सूत्रोक्त प्रायश्चित्त प्राता है / अत: जब जो नावा प्राधा योजन से कम चल कर नदी पार करे तब उस नावा में जाने पर सूत्रोक्त प्रायश्चित्त नहीं आता है। यहाँ 'जोयण" एवं "अद्धजोयण" ये दो शब्द दिए गए हैं, इसका तात्पर्य यह है कि सामान्य रूप से तो अर्ध योजन से अधिक चलने वाली नावा में भी नहीं जाना चाहिये, किन्तु अत्यन्त विकट स्थिति में कभी अनिवार्य रूप से जाने का प्रसंग आ जाए तो भिक्षु एक योजन चलने वाली नावा में जा सकता है न से अधिक जाने वालो नावा का तो उसे पूर्णतया वर्जन करना चाहिए। 13-14. प्राचारांगसूत्र में नौकाविहार के वर्णन में कहा है कि यदि नौका में बैठने के बाद नाविक नौका चलाने में मदद करने के लिए कुछ भी कहे तो भिक्षु उसे स्वीकार न करे किन्तु मौन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org