________________ [निशीथसूत्र 24. जल में रहा हुआ भिक्षु भूमि पर रहे हुए गृहस्थ से अशन, पान, खादिम या स्वादिम ग्रहण करता है या ग्रहण करने वाले का अनुमोदन करता है। 25. कीचड़ में रहा हुआ भिक्षु नाव में रहे हुए गृहस्थ से अशन, पान, खादिम या स्वादिम ग्रहण करता है या ग्रहण करने वाले का अनुमोदन करता है। 26. कीचड़ में रहा हुअा भिक्षु जल में रहे हुए गृहस्थ से अशन, पान, खादिम या स्वादिम ग्रहण करता है या ग्रहण करने वाले का अनुमोदन करता है। 27. कीचड़ के रहा हुप्रा भिक्षु कीचड़ में रहे हुए गृहस्थ से अशन, पान, खादिम या स्वादिम ग्रहण करता है या ग्रहण करने वाले का अनुमोदन करता है। 28. कीचड़ में रहा हुअा भिक्षु भूमि पर रहे हुए गृहस्थ से अशन, पान, खादिम या स्वादिम ग्रहण करता है या ग्रहण करने वाले का अनुमोदन करता है / 29. स्थल पर रहा हुअा भिक्षु नाव में रहे हुए गृहस्थ से अशन, पान, खादिम या स्वादिम ग्रहण करता है या ग्रहण करने वाले का अनुमोदन करता है / 30. स्थल पर रहा हुआ भिक्षु जल में रहे हुए गृहस्थ से अशन, पान, खादिम या स्वादिम ग्रहण करता है या ग्रहण करने वाले का अनुमोदन करता है / 31. स्थल पर रहा हुआ भिक्षु कीचड़ में रहे हुए गृहस्थ से अशन, पान, खादिम या स्वादिम ग्रहण करता है या ग्रहण करने वाले का अनुमोदन करता है। 32. स्थल पर रहा हुआ भिक्षु स्थल पर रहे हुए गृहस्थ से अशन, पान, खादिम या स्वादिम ग्रहण करता है या ग्रहण करने वाले का अनुमोदन करता है। (उसे लघुचौमासी प्रायश्चित्त प्राता है / ) _ विवेचन--१. अपकाय के जीवों की विराधना का भिक्षु पूर्णतः त्यागी होता है, अतः उसे नौकाविहार करना नहीं कल्पता है / प्राचारांगसूत्र, बृहत्कल्पसूत्र तथा दशाश्रुतस्कंध में अपवादरूप विशेष प्रयोजनों से नौका द्वारा जाने का विधान है, इसका स्पष्टीकरण १२वें उद्देशक में किया गया है। इन सुत्रों में कहे गये नौकाविहार करने का प्रमुख कारण तो कल्पमर्यादा पालन करने का है, साथ ही 1. सेवा में जाना, 2. भिक्षा दुर्लभ होने पर सुलभ भिक्षा वाले क्षेत्रों में जाना, मार्ग जीवाकुल होने पर, 4. स्थलमार्ग अत्यधिक लम्बा होने पर (इसका अनुपात भाष्य से जानना), स्थलमार्ग में चोर, अनार्य या हिंसक जन्तुओं का भय हो, 6. राजा आदि के द्वारा निषिद्ध क्षेत्र हो तो नौका द्वारा पार करने योग्य नदी को पार करने के लिये नावा में बैठना आगमविहित है अथवा सप्रयोजन माना गया है, उनका इस सूत्र से प्रायश्चित्त नहीं आता है किन्तु अप्काय आदि की होने वाली विराधना का प्रायश्चित्त बारहवें उद्देशक में कहे अनुसार समझ लेना चाहिए। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org