________________ सत्रहवां अध्ययन [375 13. जो भिक्षु कौतूहल के संकल्प से मूषक आदि के चर्म से निष्पन्न वस्त्र यावत् अनेक प्रकार के प्राभरणयुक्त वस्त्र धारण करता है या धारण करने वाले का अनुमोदन करता है। 14. जो भिक्षु कौतूहल के संकल्प से मूषक आदि के चर्म से निष्पन्न वस्त्र यावत् अनेक प्रकार के प्राभरणयुक्त वस्त्र पहनता है या पहनने वाले का अनुमोदन करता है। (उसे लघचौमासी प्रायश्चित्त आता है।) विवेचन-भिक्षु को कुतुहलवत्ति से रहित एवं गंभीर स्वभाव वाला होना चाहिये / उसे कुतूहल वृत्ति वालों की संगति भी नहीं करना चाहिए / संयम, तप, स्वाध्याय, ध्यान आदि में ही सदा प्रवृत्त रहना चाहिये। सूत्र 1 और 2 का विवेचन उद्देशक 12 में तथा 3 से 14 तक का विवेचन उद्देशक 7 में किया जा चुका है। ___ माला, आभूषण आदि पहनने से वेषविपर्यास होता है। लोकनिंदा भी होती है। इन पदार्थों की प्राप्ति में तथा रखने में भी दोषों की संभावना रहती है / अतः ये प्रवृत्तियां भिक्षु के लिये अनाचरणीय हैं। श्रमरण या श्रमणी द्वारा एक दूसरे का शरीर-परिकर्म गृहस्थ से करवाने का प्रायश्चित्त 15-68. जा णिग्गयो जिग्गंथस्स पाए अण्णउत्थिएण वा गारथिएण वा आमज्जावेज्ज वा पमज्जावेज्ज वा, आमज्जावेंतं वा पमज्जावेतं वा साइज्जइ / एवं तइय उद्देसगगमेण यन्वं जाव जा णिग्गंथी णिग्गंथस्स गामाणगामं दूइज्जमाणस्स अण्णउत्थिएण वा गारथिएण वा सोसदुवारियं कारावेइ, कारावेतं वा साइज्जइ / 69-122. जे णिग्गंथे जिग्गंथीए पाए अण्णउत्थिएण वा गारस्थिएण वा आमज्जावेज्ज वा पमज्जावेज्ज वा, आमज्जावेत वा पमज्जातं वा साइज्जइ / एवं तइय उद्देसगगमेण णेयठबं जाव जे णिग्गंथे णिग्गंथीए गामाणुगामं दुइज्जमाणोए अण्णउत्थिएण वा गारथिएण वा सोसवारियं कारावेइ, कारावेतं वा साइज्जइ / 15-68. जो निर्ग्रन्थी निर्ग्रन्थ के पैरों का अन्यतीर्थिक या गृहस्थ से एक बार या बार-बार आमर्जन करवाती है या करवाने वाली का अनुमोदन करती है। इस प्रकार तीसरे उद्देशक के (सूत्र 16 से 69) के समान पूरा पालापक जानना चाहिए यावत् जो निर्ग्रन्थी ग्रामानुग्राम जाते हुए निर्ग्रन्थ के मस्तक को अन्यतीथिक या गृहस्थ से ढकवाती है या ढकवाने वाली का अनुमोदन करती है / 69-122. जो निम्रन्थ निग्रंन्थी के पैरों का अन्यतीथिक या गृहस्थ से एक बार या बारबार पामर्जन करवाता है या करवाने वाले का अनुमोदन करता है। इस प्रकार तीसरे उद्देशक के समान पूरा पालापक जानना चाहिए यावत् जो निर्ग्रन्थ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org