________________ सोलहवां उद्देशक [359 ढककर गर्दन के पीछे गांठ देकर बांधी जाती है, यह भी समचौरस होती है / इसका प्रमाण उक्त विधि से बांधी जा सके जितना समझना चाहिये / गणना की अपेक्षा दोनों प्रकार की मुखवस्त्रिकाएँ प्रत्येक श्रमण श्रमणी की एक-एक-रखना चाहिए। अोधनियुक्ति गाथा 694 की टीका में भी मुखवस्त्रिका के समचौरस सोलह अंगुल की होने का उल्लेख है। इसी कारण से छेदसूत्रों के व्याख्या ग्रन्थों में मुखवस्त्रिका की लम्बाई-चौड़ाई अलगअलग न कहकर केवल सोलह अंगुल का माप ही कहा गया है। अोधनियुक्ति के इस कथन की जानकारी न होने के कारण अथवा इसे उपयुक्त प्रमाण न मानकर अर्वाचीन प्राचार्यों ने इक्कीस अंगुल की लम्बाई और 16 अंगुल की चौड़ाई की कल्पना की है। किन्तु मौलिक प्रमाण तो सोलह अंगुल की समचौरस मुखवस्त्रिका होने का ही मिलता है / गाथा 712 में दोनों प्रकार की मुखवस्त्रिका का प्रयोजन बताया है / उसको टोका इस प्रकार है "संपातिमसत्वरक्षणार्थं जल्पदभिमुखे दोयते," "तथा नासिकामुखं बध्नाति तया मुखवस्त्रिकया वसति प्रमार्जयन,येन न मुखादौ रजः प्रविशतीति।" संपातिम जीवों की रक्षा के लिए बोलते समय मुखवस्त्रिका मुख पर रखी जाती है तथा उपाश्रय का प्रमार्जन करते समय सूक्ष्म रज मुख और नाक में प्रवेश न करे, इसके लिए मुखवस्त्रिका बांधी जाती है। उत्तरा. अ. 3 की व्याख्या में मुखवस्त्रिका रखने का कारण स्पष्ट करते हुए कहा है कि संति संपातिमाः सत्वाः, सूक्ष्माश्च व्यापिनोऽपरे / तेषां रक्षानिमित्तं च, विज्ञेया मुखवस्त्रिकाः / / -अभि. राजेन्द्र कोष भा. 6, पृष्ठ 333 अर्थ-संपातिम प्राणियों तथा अन्य इधर-उधर फैले हुए सूक्ष्म जीवों की रक्षा के लिए 'मुखवस्त्रिका' रखी जाती है, ऐसा समझना चाहिए / भगवतीसूत्र श. 16, उ. 2 में खुले मुह से बोली जाने वाली भाषा को सावध कहा है / मुनि सावध भाषा का त्यागी होता है / जिनकल्पी आदि वस्त्ररहित एवं पावरहित रहने वाले भिक्षुत्रों को भी मुखवस्त्रिका रखना आवश्यक है / क्योंकि मुखवस्त्रिका तथा रजोहरण मुनि चिह्न के आवश्यक उपकरण हैं। प्रमाण के लिए देखें१. बृहत्कल्प उ. 3, भाष्य गा. 3963 की टीका 2. निशीथ उ. 2, भाष्य गा. 1391 / / 3. अभिधान राजेन्द्र कोष भाग 4 'जिणकप्प' पृ. 1489, -प्राचा. श्रु. 1 अ. 2 टीका 4. अभिधान राजेन्द्र कोष भाग 6 'लिंगकप्प' पृ. 656 -पंचकल्प:भाष्य एवं चूर्णि, कल्प 2 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org