________________ 358] [निशीथसूत्र चोलपट्टक–प्रश्नव्याकरणसूत्र में भिक्षु की उपधि में चोलपट्टक का केवल नामोल्लेख है / इसके अतिरिक्त अन्य वर्णन आगमों में नहीं है। निशीथभाष्य गाथा 5804 में तरुण भिक्षु के लिए केवल दो हाथ लम्बा, एक हाथ चौड़ा चोलपट्टक का माप कहा है / जो लोकिक व्यवहार में लज्जा रखने के लिए पर्याप्त नहीं है। इसलिए इसका औचित्य समझ में नहीं पाता। इस गाथा में चोलपट्टक की संख्या भी नहीं कही है। .. वृद्ध भिक्षु के लिए इसी गाथा में चार हाथ लम्बा और एक हाथ चौड़ा चोलपट्टक का माप बताया है। जो उनके लिए भी पूर्ण लज्जा रखने के लिए पर्याप्त नहीं हो सकता है। प्राचीन शुद्ध परम्परा के अभाव में वर्तमान साधु समाज में अनेक प्रकार के लम्बाई एवं चौड़ाई के माप वाले चोलपट्टक प्रचलित हैं / जो भाष्य कथित प्रमाण में भिन्न हैं। बृहत्कल्पसूत्र के तीसरे उद्देशक में भिक्षु के आवश्यक सभी उपकरणों हेतु तीन अखण्ड वस्त्र [थान] ग्रहण करके दीक्षा लेने का विधान है। यदि भाष्य कथित परिमाण के चद्दर-चोलपट्टक आदि बनाए जायें तो उक्त विधान के तीन थान जितने वस्त्रों को ग्रहण करने की आवश्यकता नहीं रहती है। इसलिए चद्दर, चोलपट्टक का पूर्ण परिमाण यही है कि वह लज्जा रखने योग्य, शीत निवारण योग्य और अपने शरीर को लम्बाई-चौड़ाई के अनुसार हो। चोलपट्टक की संख्या के सम्बन्ध में आगम तथा भाष्य में यद्यपि उल्लेख नहीं है। फिर भी प्रतिलेखन आदि की अपेक्षा से जघन्य दो चोलपट्टक रखना स्थविरकल्पी के लिए उचित ही है। मुखवस्त्रिका-'मुखपोतिका-मुखं पिधानाय, पोतं-वस्त्रं मुखंपोतं, तदेव ह्रस्वं चतुरंगुलाधिकवितस्तिमात्रप्रमाणत्वात् मुखपोतिका / मुखवस्त्रिकायाम् / " –पिंडनियुक्ति / __ भावार्थ-मुखवस्त्रिका अर्थात् मुख को प्रावृत्त करने का वस्त्र / एक बेंत और चार अंगुल अर्थात् सोलह अंगुल की मुखवस्त्रिका / निशीथभाष्य एवं बहत्कल्पभाष्य में यही एक माप कहा गया है, किन्तु लम्बाई-चौड़ाई का उल्लेख नहीं किया है / अन्य आगमों की व्याख्याओं में भी लम्बाई-चौड़ाई का अलग-अलग उल्लेख नहीं मिलता है। अतः मुखवस्त्रिका का प्रमाण सोलह अंगुल समचौरस होना स्पष्ट है / मूर्तिपूजक समाज में प्रायः समचौरस मुहपत्ति रखने की परम्परा प्रचलित है। स्थानकवासी समाज में 21 अंगुल लम्बी और सोलह अंगुल चौड़ी मुखवस्त्रिका रखने की परम्परा है। मुखवस्त्रिका का यह माप किसी पागम में या व्याख्या ग्रन्थ में नहीं है, किन्तु यह माप मुख पर बांधने में अधिक उपयुक्त है। अोधनियूक्ति में मुखवस्त्रिका के सम्बन्ध में इस प्रकार कहा है, यथा--- चत्वायंडगुलानि वितस्तिश्चेति, एतच्चतुरस्त्र मुखानन्तकस्य प्रमाणम्, अथवा इवं द्वितीय प्रमाणं-यदुत मुखप्रमाणं कर्तव्यं मुहर्णतयं; एतदुक्तं भवति वसतिप्रमार्जनादौ यथा मुखं पच्छाद्यते त्र्या कोणद्वये गृहीत्वा कृकाटिका पृष्टतश्च यथा ग्रंथितुं शक्यते तथा कर्तव्यं एतद्वितीयं प्रमाणं, गणना प्रमाणेन पुनस्तदेकैकमेव मुखानंतकं भवतीति। -अोघनियुक्ति गाथा-७११ की टीका / भावार्थ--मुखवस्त्रिका सोलह अंगुल की लम्बी और चौड़ी समचौरस होती है। दूसरे प्रकार की मुखवस्त्रिका भी होती है जो मकान का प्रमार्जन करने के समय त्रिकोण करके मुख एवं नाक को Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org