________________ 352] [निशीथसूत्र 31. जो भिक्षु घृणित कुलों में स्वाध्याय को वाचना (सूत्रार्थ) देता है या देने वाले का अनुमोदन करता है / 32. जो भिक्षु घृणित कुलों में स्वाध्याय को वाचना लेता है या लेने वाले का अनुमोदन करता है / (उसे लघुचौमासी प्रायश्चित्त पाता है / ) विवेचन-आचा. श्रु. 2 अ. 1 उ. 2 में अजुगुप्सित और अहित 12 कुलों में तथा अन्य ऐसे हो कुलों में भिक्षा के लिए जाने का विधान किया गया है। इन सूत्रों में केवल जुगुप्सित कुलों से भिक्षा लेने का प्रायश्चित्त कहा गया है। ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य ये तीन अजुगुप्सित कुल हैं और शूद्र जुगुप्सित कुल है / म्लेच्छ आदि अनार्य कुल भी भिक्षा प्रादि के लिए वर्जनीय कुल माने गए हैं। गोपालक, कृषक, बढ़ई, जुलाहे, शिल्पी, नाई तथा अन्य भी ऐसे कुलों में गोचरी जाने का प्राचा. श्रु. 2 अ. 1 उ. 2 में विधान है। उत्तरा. अ. 12 तथा 13 में 'हरिजन' कुल वालों के द्वारा संयम ग्रहण करना एवं आराधना कर मोक्ष जाने का वर्णन मिलता है। अतः जुगुप्सित कुल वालों को धर्म-ग्राराधना नहीं समझना चाहिए / कभी किसी हरिजन से भिक्षु का यदि स्पर्श हो जाए तो उसे किसी प्रकार का प्रायश्चित्त नहीं आता है / तथापि भिक्षु जिन कुलों से भिक्षा लेता है, उनमें शौचकर्मवादी अधिक होते हैं, अतः उसे जुगुप्सित कुलों में भिक्षा के लिए नहीं जाना चाहिए, क्योंकि उसे एषणा दोषों को टालने के लिए शौचमियों के घरों में प्रवेश करना पड़ता है / भिक्षा के लिए जुगुप्सित कुलों में प्रवेश करने वाले भिक्षु को अन्य शौचकर्मी (शौच प्रधान धर्म वाले) लोग अपने घरों में प्रवेश करने के लिए मना कर सकते हैं / अतः केवल सामाजिक व्यवहार के कारण यह सूत्रोक्त निषेध एवं प्रायश्चित्त विधान है, ऐसा समझना चाहिए / उत्तरा. अ. 25 में कहा है कि कर्म से क्षत्रिय, वैश्य और ब्राह्मण होते हैं और कर्म से ही शूद्र होते हैं / आचा. श्रु. 1 अ. 2 उ. 3 में कहा है कि यह जीव कभी उच्चगोत्र में और कभी नीचगोत्र में जन्म लेता है, अतः न कोई नीच है और न कोई उच्च है। भिक्षु सभी के साथ सदा समभाव से व्यवहार करता है, फिर भी सामाजिक मर्यादा से इन कूलों में प्रवेश नहीं करना प्रादि सूत्रोक्त विधानों का पालन किया जाना भी आवश्यक है। भाष्य चूर्णि में सूतक और मृतक के क्रियाकर्म करने वाले कुलों को भी अल्पकालीन जुगुप्सित कुल में गिनाया गया है। यद्यपि जुगुप्सित कुल में ठहरने मात्र का ही प्रायश्चित्त है, तथापि कभी कारणवश ठहरना पड़ जाय तो वहाँ पर स्वाध्याय का उद्देश या वाचना अादि नहीं करना चाहिए। पृथ्वी, शय्या तथा छींके पर प्राहार रखने का प्रायश्चित्त 33. जे भिक्खू असणं वा, पाणं वा, खाइमं वा, साइमं वा पुढवीए णिक्खिवइ, णिविखवंतं वा साइज्जइ। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org