________________ 326] [निशीयसूत्र 40-41 पात्र के लिये ही मासकल्प या चातुर्मास रहना, इत्यादि प्रवनियों का लघचौमासी प्रायश्चित्त पाता है। इस उद्देशक के 27 सूत्रों के विषयों का कथन आचारांग सूत्र में है१-४ भिक्ष को क्रीत, प्रामृत्य, प्राच्छेद्य, अनिसृष्ट तथा अभिहृत पात्र नहीं लेना एवं पात्र का परिवर्तन नहीं करना चाहिए। --आचा.श्रु. 2, प्र. 6, उ. 1-2 8-30 उपयोग में आने योग्य पात्र ही लेना, अनुपयोगी नहीं लेना / वर्ण-परिवर्तन नहीं करना, पात्र-परिकर्म नहीं करना, सचित्त जीव युक्त तथा प्राकाशीय स्थान पर पात्र नहीं सुखाना। --प्राचा. श्रु. 2, अ. 6, उ. 1-2 इस उद्देशक के 14 सूत्रों के विषय का कथन अन्य आगमों में नहीं है, यथा५-७ अतिरिक्त पात्र प्राचार्य की आज्ञा बिना किसी को नहीं देना / अशक्त को देना और सशक्त को नहीं देना / किन्तु व्यव. उ. 8 में अतिरिक्त पात्र दूर देश से लाने का विधान है। 31-36 अस स्थावर जीवों से युक्त पात्र न लेना। 37 पात्र में ऊपर या अन्दर कोरणी नहीं करना तथा कोरणी किया हुआ पात्र नहीं लेना। 38-39 अन्य स्थान में या सभा में से गृहस्थ को उठाकर पात्र की याचना न करना। 40-41 पात्र के लिये मासकल्प या चातुर्मासकल्प नहीं रहना / इस उद्देशक के सभी सूत्रों में पात्र सम्बन्धी प्रायश्चित्त का ही कथन है, अन्य किसी प्रकार के प्रायश्चित्तों का कथन नहीं है / यह इस उद्देशक की विशेषता है। ॥चौदहवां उद्देशक समाप्त // Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org