________________ सोलहवां उद्देशक] [345 10. जो भिक्षु सचित्त प्रतिष्ठित ईख के पर्व का मध्य भाग यावत् ईख के छोटे-छोटे टुकड़े खाता है या खाने वाले का अनुमोदन करता है। 11. जो भिक्षु सचित्त प्रतिष्ठत ईख के पर्व का मध्य भाग यावत् ईख के टुकड़े चूसता है या चूसने वाले का अनुमोदन करता है / (उसे लघुचौमासी प्रायश्चित्त आता है।) विवेचन-पूर्व उद्देशक में ग्राम-फल के कथन से सभी सचित्त या सचित्त प्रतिष्ठित फलों के खाने का प्रायश्चित्त कहा गया है। किन्तु उन फलों में 'इक्षु' का ग्रहण नहीं होता है, क्योंकि यह फल नहीं है अपितु 'स्कन्ध' है / अतः इसका यहाँ आठ सूत्रों में प्रायश्चित्त कहा गया है / प्रथम सूत्रचतुष्क में सामान्य इक्षु का और द्वितीय सूत्रचतुष्क में उसके विभागों का कथन है। प्राचा. श्रु. 2 अ. 1 उ. 10 में इक्षु को बहु उज्झित धर्म वाला बताकर ग्रहण करने का निषेध किया गया है। प्राचा. श्रु 2 अ. 7 उ. 2 में अचित्त इक्षु हो तो उसके ग्रहण करने का विधान है तथा यहाँ सचित्त इक्षु के ग्रहण करने का प्रायश्चित्त कहा गया है। अतः अचित्त होने पर भी किसी विशेष कारण से यह ग्राह्य है अन्यथा बहु उज्झित धर्म वाला होने से अग्राह्य ही है / कभी किसी कारण से ग्रहण किया जाए तो अखाद्य अंश को विवेकपूर्वक एकान्त स्थान में परठने का ध्यान रखना चाहिए। भाष्यचूणि में 'उच्छमेरगं' के स्थान पर 'उच्छुमोयं' शब्द की व्याख्या की गई है, जो समानार्थक है तथा वहाँ अन्य भी 'काणियं, अंगारियं, विगदूमियं' आदि शब्दों की व्याख्या है / ये शब्द आचा. श्रु. 2 अ. 1 उ. 8 में उपलब्ध हैं / प्रस्तुत सूत्रचतुष्क में ये शब्द उपलब्ध नहीं हैं / इन शब्दों की व्याख्या प्राचारांग में देखें / वहाँ इन्हें सचित्त एवं अशस्त्रपरिणत भी कहा है / आरण्यकादिकों का माहारादि ग्रहरण करने का प्रायश्चित्त-- 12. जे भिक्खू आरण्णगाणं वगंधाणं, अडवि-जत्ता-संपट्टियाणं, अडविजत्तापडिणियत्ताणं असणं वा, पाणं वा, खाइमं वा, साइमं वा पडिग्गाहेइ, पडिग्गाहेंतं वा साइज्जइ। 12. जो भिक्षु अरण्य में रहने वालों का, वन में गए हुओं का, अटवी की यात्रा के लिए जाने वालों का या अटवी की यात्रा से लौटने वालों का अशन, पान, खाद्य या स्वाध लेता है या लेने वाले का अनुमोदन करता है / (उसे लघुचौमासी प्रायश्चित्त अाता है।) विवेचन-सूत्र में वन, जंगल तथा अटवी में अशनादि ग्रहण करने का प्रायश्चित्त कहा है / वहाँ चार प्रकार के लोगों का संयोग मिल सकता है 1. अरण्यवासी---कंद, मूल आदि खाकर वन में ही रहने वाले। . 2. काष्ठ, फल आदि पदार्थों को लेने के लिए गए हए / 3. किसी लम्बी अटवी को पार करने के लिए जा रहा जनसमूह / 4. अटवी से लौटता हुआ जनसमूह / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org