________________ चौदहवां उद्देशक] [313 "प्राछिन्न” दोषयुक्त होता है। क्योंकि उसे लेने से निर्बल व्यक्ति को दुःख होता है, वह कभी द्वेष में आकर किसी समय साधु से पात्र छीन सकता है, फोड़ सकता है या अन्य किसी प्रकार से कष्ट दे सकता है। अनिसृष्ट-यदि कहीं कुछ पात्र अनेक भागीदारों के स्वामित्व वाले हों तो उनमें से कोई एक भागीदार के देने की इच्छा हो, अन्य भागीदारों के देने की इच्छा न हो और उनकी अनुमति लिये बिना ही कोई साधु को पात्र दे तो वह अनिसृष्ट दोष वाला पात्र होता है। अथवा कोई नौकर सेठ की इच्छा बिना या घर का कोई सदस्य घर के मुखिया की इच्छा बिना दे तो भी वह पात्र अनिसृष्ट दोषयुक्त होता है / ऐसे पात्र लेने पर बाद में क्लेश को वृद्धि हो सकती है और कोई साधु से पात्र आदि पुनः मांगने के लिये भी आ सकता है या अन्य उपसर्ग भी कर सकता है। भविष्य में पात्रादि को प्राप्ति दुर्लभ हो सकती है। अभिहत-यदि कोई गृहस्थ अपने घर से पात्र लाकर उपाश्रय में देवे अथवा अन्य किसी स्थान से या किसी ग्राम से साधु के लिये पात्र लाकर घर में रखे तो वह पात्र "अभिहृत" दोषयुक्त होता है। ऐसा पात्र लेने पर मार्ग में होने वाली जीवों की विराधना का अनुमोदन होता है। दशवै. अ. 3 में इसे अनाचार कहा गया है / पैदल चल कर आने वाला या वाहन से आने वाला त्रस और स्थावर जीवों की हिंसा करता है, मार्ग में वर्षा या नदी भी पा सकती है। लाने वाला व्यक्ति प्राधाकर्म, क्रीत आदि दोषयुक्त पात्र भी ला सकता है। अतः सामने लाया गया पात्र नहीं लेना चाहिये। इन छह दोषों में से दो दोषों को दश. अ. 3 में अनाचार कहा गया है / "परिवर्तित" दोष को छोड़कर शेष 5 को दशा. द. 2 में सबलदोष भी कहा गया है। प्राचा. श्रु. 2, अ. 1-2-5-6 आदि में इन 5 दोषों से युक्त आहार, वस्त्र, पात्र को लेने का निषेध है। __ अत: इन छहों को उद्गम के दोष जानकर इनका त्याग करना चाहिये। किसी परिस्थिति विशेष में इन दोषों से युक्त पात्र लेना पड़े तो लघुचौमासी प्रायश्चित्त आता है। अतिरिक्त पात्र गणी की आज्ञा लिए बिना देने का प्रायश्चित्त 5. जे भिक्खू अइरेगपडिग्गहं गणि उद्दिसिय, गणि समुद्दिसिय, तं गणि अणापुच्छिय अणामंतिय अण्णमण्णस्स वियरइ, वियरतं वा साइज्जइ / 5. जो भिक्षु गणी के निमित्त अधिक पात्र ग्रहण करके गणो को पूछे बिना या निमन्त्रण किये बिना अन्य किसी को देता है या देने वाले का अनुमोदन करता है। [उसे लघुचातुर्मासिक प्रायश्चित्त पाता है। ] विवेचन--भिक्षु को कल्पनीय और योग्य लकड़ी के पात्र सर्वत्र निर्दोष नहीं मिलते हैं। तुम्बे के पात्र सर्वत्र सुलभ नहीं होते हैं और मिट्टी के पात्र सर्वत्र सुलभ होते हैं, किन्तु वे सुविधा वाले नहीं होते हैं / वे विशेष परिस्थिति में कभी-कभी काम में आते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org