________________ दसवां उद्देशक] [197 भदंत--इन तीन सूत्रों में "पायरिय' शब्द का प्रयोग न करके "भदंत' शब्द का प्रयोग किया गया है। उससे प्राचार्य, उपाध्याय आदि पदवीधर तथा गुरु या रत्नाधिक सबका ग्रहण किया गया है। यदि यहाँ प्राचार्य के लिए ही यह प्रायश्चित्त-विधान होता तो "आयरिय' शब्द का ही प्रयोग किया जाता। आसायणा भाष्य में दशाश्रुतस्कन्धवणित 33 आशातनाओं का निर्देश किया गया है और द्रव्य, क्षेत्र, काल व भाव ये चार भेद करके आशातनाओं का विस्तृत विवेचन किया है। वहाँ आशातना के अनेक अपवादों का भी उल्लेख किया है, यथा 1. गुरु बीमार हो तो उनके लिए जो अपथ्य आहार हो वह उन्हें न दिखाना किन्तु स्वयं खा लेना या बिना पूछे अन्य को दे देना / / 2. मार्ग में कांटे ग्रादि हटाने के लिए आगे चलना / 3. विषम स्थान में या रुग्ण अवस्था में सहारे के लिये अत्यन्त निकट चलना। 4. शारीरिक परिचर्या करने के लिए निकट बैठना एवं स्पर्श करना। 5. अपरिणत साधु न सुन सके, इसके लिये छेदसूत्र की वाचना के समय निकट बैठना / 6. गृहस्थ का घर निकट हो तो गुरु के अावाज देने पर भी न बोलना अथवा संघर्ष की सम्भावना हो तो भी न बोलना / 7. साधुओं से मार्ग अवरुद्ध हो तो स्थान पर से ही उत्तर दे देना। 8. स्वयं बीमार हो या अन्य बीमार की सेवा में संलग्न हो तो बुलाने पर भी न बोलना / 9. मलविसर्जन करते हुए न बोलना। 10. गुरु से कभी उत्सूत्र प्ररूपणा हो जाये तो विवेकपूर्वक या एकान्त में कह देना। 11. गुरु आदि के संयम में शिथिल हो जाने पर उन्हें संयम में स्थिर करने के लिये कर्कश भाषा का प्रयोग करना। उक्त पाशातना की प्रवृत्ति करने पर भी सूत्रोक्त प्रायश्चित्त नहीं आता है। क्योंकि इनमें आशातना के भाव न होकर उचित विवेकदृष्टि होती है / अनन्तकायसंयुक्त आहार करने का प्रायश्चित्त 5. जे भिक्खू अणंतकाय-संजुत्तं आहारं आहारेइ, आहारतं वा साइज्जइ / 5. जो भिक्षु अनंतकायसंयुक्त (मिश्रित) आहार करता है या करने वाले का अनुमोदन करता है। (उसे गुरुचौमासी प्रायश्चित्त आता है / ) विवेचन-सूत्र में अनंतकाय से मिश्रित आहार का प्रायश्चित्त कहा है, शुद्ध अनन्तकाय का / नहीं। क्योंकि भिक्ष जान-बझकर सचित्त अनन्तकाय तो नहीं खाता है किन्त किसी खा सचित्त कन्दमूल के टुकड़े मिश्रित हों और उनकी जानकारी न हो, ऐसी स्थिति में यदि खाने में आ जाए तो वह अनन्तकायसंयुक्त आहार कहा जाता है / अथवा किसी अचित्त खाद्य पदार्थ में लीलनफूलन (काई) पा जाये और ग्रहण करते समय व खाते समय तक भी उसकी जानकारी न हो पाए, तब भी अनन्तकायसंयुक्त आहार करने का प्रसंग बन सकता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org