________________ 290] [निशीयसूत्र 14. जे भिक्खू अण्णउत्थियं वा गारत्थियं वा फरुसं वयइ, वयंतं वा साइज्जइ / 15. जे भिक्खू अण्णउत्थियं वा गारत्थियं वा आगाढं-फरुसं वयइ, वयंतं वा साइज्जइ / 16. जे भिक्खू अण्णउत्थियं वा गारस्थियं वा अण्णयरीए अच्चासायणाए अच्चासाएइ, अच्चासाएंतं वा साइज्जह / ___ 13. जो भिक्षु अन्यतीथिक या गृहस्थ को प्रावेशयुक्त वचन कहता है या कहने वाले का अनुमोदन करता है। 14. जो भिक्षु अन्यतीर्थिक या गृहस्थ को कठोर वचन कहता है या कहने वाले का अनुमोदन करता है। 15. जो भिक्षु अन्यतीथिक या गृहस्थ को आवेशयुक्त कठोर शब्द कहता है या कहने वाले का अनुमोदन करता है। 16. जो भिक्षु अन्यतीथिक या गृहस्थ की किसी भी प्रकार की प्राशातना करता है या करने वाले का अनुमोदन करता है / (उसे लघुचातुर्मासिक प्रायश्चित्त आता है / ) विवेचन-भिक्षु को किंचित् भी कठोर भाषा बोलना नहीं कल्पता है। अत्यल्प फरुष वचन बोलने पर निशोथ उद्देशक 2 सूत्र 19 से लघुमासिक प्रायश्चित्त आता है तथा उद्देशक 10 में प्राचार्य या रत्नाधिक को कठोर वचन बोलने आदि का गुरुचौमासी प्रायश्चित्त कहा है / इन प्रस्तुत सूत्रों में किसी भी गृहस्थ को कठोर शब्द कहने या अन्य किसी प्रकार से उनकी आशातना-अवहेलना करने का लघुचौमासी प्रायश्चित्त कहा है / आगाढ़ आदि शब्दों की व्याख्या दसवें उद्देशक में देखें। भिक्षु को सदा सबके लिये हितकारी, परिमित और मधुर शब्द ही कहने चाहिए। चाहे वह छोटा साधु हो या बड़ा साधु हो, कोई छोटा बड़ा गृहस्थ हो अथवा बच्चे आदि भी क्यों न हों, किसी को कठोर शब्द कहना, तिरस्कार करना या अन्य किसी तरह से उनकी अवहेलना करना उचित नहीं है / ऐसा करने पर संयम दूषित होता है, अन्य का अपमान करना कषाय उत्पत्ति का कारण होता है / अतएव वह इन सूत्रों से प्रायश्चित्त का पात्र होता है / कठोर भाषा बोलने में मलिनभाव होने से कर्म बंध होता है तथा कलह उत्पति का निमित्त भी हो जाता है। भाषा सम्बन्धी विवेक का कथन दशवकालिक सूत्र अ. 4-6-7-8-10 में, प्राचा. श्रु. 2, अ. 4 में तथा प्रश्नव्याकरण श्रु. 2, अ. 2 में है तथा उत्तराध्ययन आदि सूत्रों में भी अनेक जगह है। पांच समिति में भाषासमिति का पालन अत्यन्त कठिन कहा गया है। अतः भिक्षु को सदा भाषा का अत्यन्त विवेक रखना चाहिये। कौतुककर्म आदि के प्रायश्चित्त 17. जे भिक्खू अण्णउत्थियाण वा गारत्थियाण वा कोउगकम्मं करेइ, करेंतं वा साइज्जइ। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org