________________ तेरहवां उद्देशक] [293 __ योग-वशीकरण, पादलेप, अंतर्धान होना आदि 'योग' कहे जाते हैं / ये योग विद्यायुक्त भी होते हैं और विद्या के बिना भी होते हैं / अन्य विशेष जानकारी के लिये दसवें उद्देशक के सातवें सूत्र का विवेचन देखें। मार्गादि बताने का प्रायश्चित्त 28. जे भिक्खू अण्णउत्थियाण वा गारत्थियाण वा नट्ठाणं, मूढाणं, विप्परियासियाणं मग्गं वा पवेएइ, संधि वा पवेएइ, मग्गाओ वा संधि पवेएइ, संधीओ वा मग्गं पवेएइ, पवेएंतं वा साइज्जइ / 28. जो भिक्षु मार्ग भूले हुए, दिशामूढ हुए या विपरीत दिशा में गए हुए अन्यतीथिकों या गृहस्थों को मार्ग बताता है या मार्ग की संधि बताता है अथवा मार्ग से संधि बताता है या संधि से मार्ग बताता है या बताने वाले का अनुमोदन करता है / (उसे लघुचातुर्मासिक प्रायश्चित्त आता है।) विवेचन-संधि–अनेक मार्गों के मिलने का स्थान या अनेक मार्गों का उद्गम स्थान / मम्गाओ वा संधि-मार्ग से संधिस्थान कितना दूर है, कहां है यह बताना / संधिओ वा मग्ग-संधिस्थान से गन्तव्य मार्ग बताना, उसकी दिशा बताना / मार्ग बताने के बाद व्यक्ति स्वयं की गलती से अन्यत्र चला जाय, समझने में भूल हो जाय या मार्ग लम्बा लगे, विकट लगे, चोर लुटेरे आ जायें, शेर आदि आ जाय इत्यादि कारणों से भिक्षु के प्रति अनेक प्रकार के मलिन विचार या गलत धारणा हो सकती है। मार्ग में पानी, वनस्पति, त्रस जीव आदि हों तो उनकी विराधना भी हो सकती है। आचा. श्रु. 2, अ. 3, उ. 3 में बताया गया है कि विहार में चलते हुए भिक्षु से कोई गृहस्थ पूछ ले कि 'यहां से अमुक गांव कितना दूर है या अमुक गांव का मार्ग कितनी दूरी पर है ?' तो भिक्षु उसका उत्तर न दे किन्तु मौन रहे या सुना अनसुना करके आगे गमन करे तथा जानते हुए भी मैं नहीं जानता हूं अथवा मैं जानता हूं पर कहूंगा नहीं, ऐसा न कहे केवल उपेक्षाभाव रखकर मौन रहे / आचारांगसूत्र के इस विधान का तात्पर्य भी यही है कि भिक्षु के कहने में भूल हो जाय या सुनने वाले के बरावर समझ में न आने से भ्रम हो जाय, कभी गृहस्थ मार्ग भूल जाए या मार्ग में उसे अधिक समय लग जाय, गर्मी का समय (मध्याह्न) हो जाय या रात्रि हो जाय, भूख प्यास से व्याकुल हो जाय इत्यादि अनेक दोषों की सम्भावना रहती है / अतः भिक्षु ऐसे प्रसंगों में विवेकपूर्वक उपेक्षा भाव रखता हुआ गमन करे। कभी परिस्थितिवश या अन्य किसी कारण से हिताहित का विचार करके मार्ग बताना पड़े तो विवेकपूर्ण भाषा में मार्ग बतावे तथा यथायोग्य सूत्रोक्त प्रायश्चित्त स्वीकार कर ले। धातु और निधि बताने का प्रायश्चित्त 29. जे भिक्खू अण्णउत्थियाण वा गारस्थियाण वा धाउं पवेदेइ, पवेदेतं वा साइज्जइ। 30. जे भिक्खू अण्णउत्थियाण वा गारस्थियाण वा निहिं पवेदेइ, पवेदंतं वा साइज्जइ / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org