________________ 302] [निशीथसूत्र इन अनेक प्रागमोक्त विधानों की उपेक्षा करके तथा संयम या वैराग्य भाव कम करके जो मुनि उपयुक्त पदार्थों में ममत्व-आसक्ति करता है, उनके निमित्त से कलह करता है या प्रशान्त हो जाता है, वह 'मामक' कहा जाता है। 4. "संप्रसारिक"-- असंजयाण भिक्खू, कज्जे असंजमप्पवत्तेसु / / जो देति सामत्थं, संपसारओ उ नायब्बो / -भाष्य गा. 4361 भावार्थ-गृहस्थ के कार्यों में अल्प या अधिक भाग लेने वाला या सहयोग देने वाला 'संप्रसारिक' कहा जाता है / जो साधु सांसारिक कार्यों में प्रवृत्त होकर गृहस्थों के पूछने पर या बिना पूछे ही अपनी सलाह देवे कि 'ऐसा करो' 'ऐसा मत करो' 'ऐसा करने से बहुत नुकसान होगा' 'मैं कहूं वैसा ही करो' इस प्रकार कथन करने वाला 'संप्रसारिक' कहा जाता है। -भा. गा. 4361 उदाहरणार्थ कुछ कार्यों की सूची-- 1. विदेशयात्रार्थ जाने के समय का मुहूर्त देना। 2. विदेशयात्रा करके वापिस आने पर प्रवेश समय का मुहर्त देना / 3. व्यापार प्रारम्भ करने का और नौकरी पर जाने का मुहर्त बताना। 4. किसी को धन ब्याज से दो या न दो. ऐसा कहना। 5. विवाह आदि सांसारिक कार्यों के मुहूर्त बताना / 6. तेजी, मंदी सूचक निमित्त शास्त्रोक्त लक्षण देकर व्यापारिक भविष्य बताना अर्थात् यह चीज खरीद लो, यह बेच दो इत्यादि कहना। __ इस प्रकार के और भी गृहस्थों के सांसारिक कार्यों में कम ज्यादा भाग लेने वाला 'संप्रसारिक' कहलाता है। --चूर्णि भाग 3, गा. 4362 पार्श्वस्थादि नौ तथा दसवें उद्देशक में वर्णित यथाछंद, ये कुल दस दूषित प्राचार वाले कहे गये हैं / अागम के अनुसार इनकी भी तीन श्रेणियाँ बनती हैं-१. उत्कृष्ट दूषितचारित्र, 2. मध्यम दूषितचारित्र, 3. जघन्य दूषितचारित्र / 1. प्रथम श्रेणी में--'यथाछंद' का ग्रहण होता है। इसके साथ वन्दनव्यवहार, आहार, वस्त्र, शिष्य आदि का आदान-प्रदान व गुणग्राम करने का, वाचना देने-लेने का गुरुचौमासी प्रायश्चित्त प्राता है। 2. दूसरी श्रेणी में-'पार्श्वस्थ', 'अवसन्न', 'कुशील', 'संसक्त' और 'नित्यक' इन पांच का ग्रहण होता है। इनके साथ वन्दनव्यवहार, आहार, वस्त्रादि का आदान-प्रदान व गुणग्राम करने का, वाँचणी लेने-देने का लघुचौमासी प्रायश्चित्त आता है व शिष्य लेने-देने का लघुमासिक प्रायश्चित्त आता है / 3. तृतीय श्रेणी में-'काथिक' 'प्रेक्षणीक' 'मामक' और 'संप्रसारिक' इन चार का ग्रहण होता है / इनके साथ वन्दनव्यवहार, आहार-वस्त्र आदि का आदान-प्रदान व गुणग्राम करने का लघु Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org