________________ तेरहवां उद्देशक [301 अतः विकथाओं में समय बिताने वाला, आहारादि के लिये धर्मकथा करने वाला और सदा धर्मकथा ही करते रहने वाला 'काथिक' कहा गया है / 2. पासणिय (प्रेक्षणिक)जणव जो पेक्खणं करेति सो पासणिओ। जनपद आदि में अनेक दर्शनीय स्थलों का या नाटक नृत्य आदि का जो प्रेक्षण करता है वह संयम लक्ष्य तथा जिनाज्ञा की उपेक्षा करने से 'पासणिय' प्रेक्षणिक कहा जाता है / --चूणि / / अथवा जो अनेक लौकिक (सांसारिक) प्रश्नों के उत्तर देता है या सिखाता है; उलझी गुत्थियां, प्रहेलिकाएं बताने रूप कुतूहल-वृत्ति करता है, वह भी 'पासणिय' कहा जाता है / -चूणि / दूसरी वैकल्पिक परिभाषा का अर्थ तो 'कुशील' का द्योतक है, अतः यहां प्रथम परिभाषा ही प्रासंगित है ! 3. मामक -"ममीकार करतो मामओ" गाथा-आहार उवहि देहे, वीयार विहार वसहि कुल गामे। पडिसेहं च ममत्तं, जो कुणति मामओ सो उ // 4359 / / भावार्थ-जो आहार में आसक्ति रखता है, संविभाग नहीं करता है, निमन्त्रण नहीं देता है, उपकरणों में अधिक ममत्व रखता है, किसी को अपनी उपधि के हाथ नहीं लगाने देता है, शरीर में ममत्व रखता है, कुछ भी कष्ट परोषह सहने की भावना न रखते हुए सुखैषी रहता है। स्वाध्यायस्थल व परिष्ठापनभूमि में भी अपना अलग स्वामित्व रखते हुए दूसरों को वहां बैठने का निषेध करता है। मकान में, सोने, बैठने या उपयोग में लेने के स्थानों में अपना स्वामित्व रखता है, दूसरों को उपयोग में नहीं लेने देता है। श्रावकों के ये घर या गांव आदि मेरी सम्यक्त्व में हैं। इनमें कोई विचर नहीं सकता इत्यादि संकल्पों से गांवों या घरों को मेरे क्षेत्र, श्रावक ऐसी चित्तवृत्ति रखता हुया ममत्व करता है, वह 'मामक' कहलाता है। क्योंकि ममत्व करना साधु के लिये निषिद्ध है। ममत्व नहीं करने के प्रागमवाक्य--- 1. अवि अप्पणो वि देहम्मि नायरंति ममाइयं / -~-दश. अ. 6, गा. 22 2. समणं संजयं दंतं, हणिज्जा कोई कत्थइ / पत्थि जीवस्स णासुत्ति, एवं पेहेज्ज संजए॥ -उत्तरा. अ. 2, गा. 27 3. जे ममाइयमई जहाइ, से चयइ मनाइयं, से हु दिट्ठपहे मुणी, जस्स पत्थि ममाइयं / --आचा. श्रु 1, अ. 2, उ. 6 किसी भी पदार्थ---गांव, घर, शरीर, उपधि आदि में जिसका ममत्व अर्थात् प्रासक्तिभाव नहीं है, वास्तव में वही वीतरागमार्ग को जानने समझने वाला मुनि है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org